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कारगिल विजय दिवस: जब पाक की नापाक सोच पर भारी पड़ा 'ऑपरेशन विजय', पढ़िए भारत-पाकिस्तान युद्ध की कहानी

[Edited By: Admin]

Friday, 26th July , 2019 11:53 am

कारगिल युद्ध के 20 वर्ष पूरे हो गए हैं। 26 जुलाई 1999 को जब इस युद्ध में भारत को विजय मिली, तो पूरे देश में हर्ष का माहौल था। अपनी जान का बलिदान देकर देश का झंडा बुलंद करने वाले शहीदों में कई झारखंड के भी थे। शहीदों के शव उनके घर तक सम्मानपूर्वक पहुंच जाएं इसका जिम्मा जिन्हें दिया गया था उनमें एक नाम मेदिनीनगर निवासी कर्नल संजय सिंह का था। बीस साल गुजर गए युद्ध के लेकिन आज भी वह दिन याद कर कर्नल सिंह भावुक हो जाते हैं।

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उन दिनों को याद करते हुए कर्नल ने बताया कि सेना में पांच वर्ष की सर्विस पूरी करने के बाद मैं दिल्ली की एक यूनिट में पोस्टेड था। तब दस चुनिंदे कैप्टन को लॉजिस्टिक मैनेजमेंट स्किल के आधार पर भारतीय सेना ने इंडियन ऑयल कारपोरेशन मुंबई में छह महीने का ऑफिसर्स पेट्रोलियम मैनेजमेंट में दक्षता के लिए भेजा था, जिसमें मैं भी एक था। कोर्स समाप्त होने में तकरीबन पंद्रह दिन बचे थे तभी कैप्टन अमरजीत वासदेव ने टी ब्रेक में चाय की चुस्की लेते हुए कहा, लगता है हम सभी को जल्द ही यूनिट जाना होगा। पाक बॉर्डर पर कुछ टेंशन का माहौल है। आज कमांडर का फोन आया था। तभी टीवी पर रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नाडिस का बयान आ रहा था कि कुछ मुट्ठी भर घुसपैठिये हमारी पोस्ट में घुस गए हैं हम इन्हें एक सप्ताह में भगा देंगे।

भागे-भागे पहुंचे अपनी यूनिट

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शाम हुई और हमारे ऑफिसर्स मेस में चीफ इंस्ट्रक्टर कर्नल दीपक कपूर सभी को बुलाकर बोले, टूमॉरो मॉर्निंग यू आर गोइंग बैक टू योर यूनिट। दूसरे दिन सुबह जिसको जैसी सुविधा हुई हवाई जहाज या ट्रेन पकड़कर हमलोग अपनी यूनिट पहुंचे। मेरी यूनिट दिल्ली में थी, आने केसाथ हमारे कमाडर ब्रिगेडियर पीके मेहता ने मुझे बताया कि कल सुबह की स्पेशल फ्लाइट से मुझे लेह जाना है। युद्ध की स्थिति बन चुकी थी। अल सुबह जब पालम एयरपोर्ट पहुंचा तो शारीरिक रूप से स्वस्थ्य सभी पदाधिकारी कारगिल में अपनी यूनिटों में जाने को बेताब दिखे। तकरीबन एक बजे हम लेह पहुंचे। हमें वहा पर कारगिल के पास द्रास नामक सेना मुख्यालय में पहुंचना था, जहा पर आगे का दायित्व दिया जाना था। शहीदों के पार्थिव शरीर तेजी से आना प्रारंभ हो चुका था।

बड़ी चुनौती थी शहीदों को शवों को परिजनों तक पहुंचाना 

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भारतीय सेना को शहीदों के पार्थिव शरीरों को उनके परिजनों तक पहुंचाना एक बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी थी। उन्हें एक ऐसे पदाधिकारी की तलाश थी जो दिल्ली में पोस्टेड रहा हो और शहीद के परिजनों तक उनके पार्थिव शरीर को सैनिक सम्मान के साथ भिजवा सके। सेना मुख्यालय से मेरी ड्यूटी दिल्ली में लगा दी गई। वहां मुझे कारगिल से दिल्ली पहुंचने वाले शहीदों के पार्थिव शरीर को उनके परिजनों तक पूरे सम्मान के साथ भिजवाने की व्यवस्था करनी थी। हर दिन पूरे भारत वर्ष के हर राज्य, हर भाषा, हर धर्म के शहीद के पार्थिव शरीर देखकर रहा नहीं गया।

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अपने कमांडर ब्रिगेडियर मेहता को कहा, मुझे तत्काल युद्धभूमि में भेजिए। मैं अपने वीर सपूतों की शहादत का बदला लेना चाहता हूं। उन्होंने जवाब दिया- पूजे न गए शहीद तो यह पंथ कौन अपनाएगा तोपों के मुंह से कौन अकड़ अपनी छातियां अड़ाएगा चूमेगा फंदे कौन गोलियां कौन वक्ष पर खाएगा अपने हाथों अपना मस्तक फिर कौन आगे बढ़ाएगा। कहा, आपको जो काम सौंपा गया है वह बहुत महत्वपूर्ण है। अपने काम में पूरी तन्मयता से जुट गया। ज्यों ज्यों कारगिल विजय दिवस नजदीक आने लगता है तिरंगे में लिपटे शहीदों के पार्थिव शरीर आंखों के सामने घूमने लगते हैं। आंखें नम होकर बंद हो जाती हैं, श्रद्धा भाव से खुद ब खुद हाथ सैल्यूट करने को उठ जाते हैं।

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1999 में आज ही के दिन भारत के वीर सपूतों ने कारगिल की चोटियों से पाकिस्तानी फौज को खदेड़कर तिरंगा फहराया था। हालांकि इस जंग में हमने कई बहादुर जवान खोए, इन्ही में एक थे सुराना गांव के सुरेन्द्र्र ंसह यादव। उनकी शहादत ने ऐसी प्रेरणा दी कि सुराना और पड़ोस के सुठारी गांव के 150 से ज्यादा लोग सेना का हिस्सा बन गए। ग्राम प्रधान मोनिका यादव बताती हैं कि जहां आजादी के बाद पांच दशक में करीब 80 लोग सेना का हिस्सा थे तो वहीं, कारगिल फतह के बाद 150 से अधिक युवा सेना में भर्ती हुए।

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बुजुर्ग महावीर सिंह बताते हैं कि गांव की दो बेटियां सेना में, आठ बहू और बेटियां अर्धसैनिक बलों में एवं 35 बेटियां पुलिस सेवा में कार्यरत हैं। कारगिल जंग से पहले कोई बहू या बेटी सेना या दूसरे बलों में नहीं थीं।

शपथ ली थी 
सुराना गांव के राकेश कुमार ने बताया कि जब सुरेन्द्र यादव का पार्थिव शरीर गांव पहुंचा तो हजारों लोग उन्हें सलामी देने पहुंचे थे। अंतिम संस्कार से पहले 100 से ज्यादा युवाओं ने शपथ ली थी कि वे सेना में जाकर इसका बदला लेंगे। 

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फोटो लेकर सोती हैं मां
सुरेंद्र के भाई वीरेन्द्र ने बताया कि मां चंपा देवी रात को भाई की फोटो साथ लेकर सोती हैं। उठते ही फोटो निहारती हैं। वे भी जब किसी सैनिक को देखते हैं तो भाई याद आ जाते हैं।

पहली तैनाती थी
सुरेन्द्र 20 साल की उम्र में 1997 में सेना में भर्ती हुए। कश्मीर में पहली तैनाती मिली। जंग के दौरान उनकी कुमाऊं रेजीमेंट ने टाइगर हिल चोटी मुक्त करा ली पर सुरेंद्र शहीद हो गए।

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