'अमिताभ बच्चन' बस ये एक नाम ही काफी है. केवल हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक हैं. करियर के 50वें साल में अमिताभ बच्चन को हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा दादा साहब फाल्के अवॉर्ड दिया गया है. मंगलवार को केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी. बॉलीवुड जगत की नामी हस्तियों से लेकर उनके फैंस तक हर कोई उन्हें इस उपलब्धि के लिए बधाई दे रहा है.
अब अमिताभ ने भी इस सम्मान से नवाज़े जाने के लिए आभार व्यक्त किया है. अपने ऑफीशियल ट्विटर हैंडल पर एक ट्वीट के जरिए उन्होंने अपनी खुशी ज़ाहिर की है। अमिताभ ट्वीट के साथ एक फोटो शेयर की है जिसमें वो हाथ जोड़कर खड़े हैं. बिग बी ने लिखा, कृतज्ञ हूँ मैं , परिपूर्ण , आभार और धन्यवाद ... मैं केवल एक विनयपूर्ण , विनम्र अमिताभ बच्चन हूँ’.
https://www.youtube.com/watch?v=UtSmuieUO9Q
अमिताभ ने अपने करियर में दादासाहेब फाल्के के अलावा भी तमाम पुरस्कार जीते हैं जिनमें तीन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और 12 फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार सम्मिलित हैं. उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फ़िल्मफेयर अवार्ड का रिकॉर्ड है.
फिल्मी करियर की फ्लॉप शुरूआत के बाद मुंबई के निर्माता निर्देशक उन्हें फिल्म में लेने से कतराने थे. अमिताभ निराश होने लगे थे. उन दिनों प्रकाश मेहरा 'जंजीर'(1973) की कास्टिंग कर रहे थे। तब प्राण ने उन्हें अमिताभ को इसमें लेने के लिए तैयार किया.
फिल्म बनकर तैयार हो गई, लेकिन वितरक इसे लेने तैयार नहीं थे. क्योंकि अमिताभ उनके लिए पिटे हुए हीरो थे. हालांकि, अमिताभ ने इस दौरान धैर्य नहीं खोया. खैर किसी तरह 'जंजीर' रिलीज हुई और जिसने भी यह फिल्म देखी, वह उनका दीवाना हो गया.
1983 में आई 'कुली' में अमिताभ के साथ हुआ हादसा बहुत ही दर्दनाक था. एक्टर पुनीत इस्सर का एक घूंसा लगने से स्थिति यह हो गई कि अमिताभ को सीधे अस्पताल में भर्ती कराया गया. ये वह समय था, जब अमिताभ का करियर चरम पर था.
ऐसे में देश में हर जगह अमिताभ के लिए दुआएं और प्रार्थनाएं होने लगी थीं. आखिरकार, अमिताभ ने लोगों की दुआओं और अपने जीवट के दम पर जिंदगी की ये जंग जीत ली और स्वस्थ होकर अस्पताल से बाहर निकले.
1984 में अमिताभ को इलाहाबाद की लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर एच. एन. बहुगुणा के सामने उतारा गया था, जो कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। अमिताभ इस चुनाव में बहुत ही बड़े अंतर से जीते थे, लेकिन चुनाव जीतने के तीन साल बाद ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
उस समय बोफोर्स कांड की गहमा-गहमी अपने चरम पर थी और गांधी परिवार के साथ-साथ बच्चन परिवार को भी इस घोटाले में घसीटा गया था.इससे अमिताभ बहुत आहत हुए थे. लेकिन इन सब से निकलकर वे फिर से फिल्मों में सफलता हासिल कर सके.
1995 में अमिताभ ने 'अमिताभ बच्चन कॉर्पोरेशन लिमिटेड' (ABCL) की शुरुआत की, जो एक फिल्म प्रोडक्शन और इवेंट मैनेजमेंट कंपनी थी. प्रॉपर प्लानिंग न होने और मैनेजमेंट की कमी ने उनकी कंपनी को बिखेर कर रख दिया. यह दौर अमिताभ की जिंदगी का सबसे बुरा दौर था. यहां तक कि अमिताभ अपनी कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों को उनकी सैलरी तक नहीं दे पाए थे.
एबीसीएल के फ्लॉप होने के बाद अमिताभ बच्चन के मुंबई वाले घर और दिल्ली वाली जमीन के जब्त होने और नीलाम होने की स्थिति आ गई थी. बैंक पैसे की वसूली के दबाव डालने लगे, तब अमिताभ बोर्ड ऑफ इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रीकंस्ट्रक्शन के पास गए और मदद मांगी.
ऐसे में मुंबई हाईकोर्ट ने उन्हें अपने मुंबई वाले दोनों बंगले बेचने से रोका और दूसरे तरीके से अपना लोन चुकाने की मोहलत दी.
अमिताभ ने इस बारे में खुद बताया है कि 'मैं ये सब बंद नहीं करना चाहता था. बहुत सारे लोगों का इसमें पैसा लगा हुआ था और लोगों को इस कंपनी में भरोसा था. और ये सब मेरे नाम की वजह से था. मैं उन लोगों के साथ धोखा नहीं कर सकता था. उन दिनों मेरे सिर पर हमेशा तलवार लटकती रहती थी। मैंने कई रातें बिना सोए गुजारीं."
अमिताभ ने आगे कहा था, "एक दिन मैं खुद ही सुबह-सुबह यश चोपड़ा के पास गया और उनसे कहा कि मुझे काम चाहिए. यशजी न उसके बाद मुझे 'मोहब्बतें' ऑफर की।'
'मोहब्बतें' मिलने के बाद ही अमिताभ को 'केबीसी' की होस्टिंग का ऑफर मिला था, जिससे उन्हें नई पहचान मिली थी. अमिताभ बताते हैं कि 'इसके बाद मैंने कमर्शियल और फिल्में करना शुरू कर दिया था. मेरे ऊपर चढ़ा 90 करोड़ रुपए का कर्ज उतर गया और मैं एक नई शुरुआत करने में कामयाब रहा.
अमिताभ बच्चन ज़रूरत से ज़्यादा लम्बे थे. उस ज़माने के फ़ैशन बेलबॉटम में तो उनकी छरहरी टांगें और उभरकर आती थीं.
विजय के किरदार में दर्शक हमेशा खुद को देखता रहा. यही वजह रही कि अमिताभ के प्रशंसकों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती गई. जैसा खुद जावेद अख़्तर 'सिनेमा के बारे में' किताब में 'दीवार' के संदर्भ में नसरीन मुन्नी कबीर से कहते हैं, "विजय कभी भी उस आदमी की तलाश नहीं करता जिसने उसके बाप के साथ ज्यादती की थी. वो उस मुंशी के साथ भी कुछ नहीं करता जिसने उसकी माँ के साथ बदसलूकी की थी. विजय जानता है कि कुसूरवार तो ये सिस्टम है. आखिरकार वो बग़ावत तब करता है जब वो देखता है कि गोदी का एक मज़दूर ठगों के हाथों मारा जाता है, वो बग़ावत तब करता है जब वो देखता है कि गोदी के मज़दूरों से 'प्रोटेक्शन मनी' वसूल की जा रही है.. 'दीवार' में जो विजय के साथ हो रहा था वो सब हममें से बहुत से लोगों के साथ हो रहा था, हो सकता है कि हम विजय की तरह पेश ना आए हों, लेकिन फिर भी हमें उसकी बातें..कहीं ज़्यादा अपनी बातें लगती थीं."
ऐसा नहीं कि अमिताभ ने अपने फ़िल्मी करियर में असफ़लताएं नहीं देखीं. अस्सी के दशक में राजनीति की ज़मीन पर मुँह की खाने के बाद जब वे सिनेमा के परदे पर वापस लौटे, तो उनके हिस्से 'जादूगर', 'तूफ़ान', 'मर्द' और 'शहंशाह' जैसी भौंडी भूमिकाएं ही आईं. ठीक इसी तरह नब्बे के दशक में बिज़नस की पिच पर बाउंसर झेलते हुए जब वे अपने दूसरे संन्यास से वापस सिनेमा में लौटे तो भी उनके हिस्से 'मृत्युदाता' 'मेजर साब' और 'लाल बादशाह' जैसी औसत से कमतर फ़िल्में रहीं, जिनमें उनकी पूर्ववर्ती महानायकीय इमेज को भुनाने की भद्दी कोशिश दिखती थी. पर वे इस दौर से बाहर निकले, जिसका श्रेय हर बार उनकी प्रयोगशीलता तथा नए माध्यमों तथा निर्देशकों के साथ काम करने की हिचक तोड़ने को जायेगा. हालांकि ऐसा करने में उन्हें सदा ही ज़रूरत से ज़्यादा देर लगती रही है.
नायिका के कांधे के पीछे खड़ा नायक
पर यह भी पोएटिक जस्टिस ही है कि जिस महानायक ने अपने गुस्सैल 'एंग्री यंग मैन' अवतार के साथ लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा से नायिकाओं की भूमिका को तक़रीबन अप्रासंगिक बना दिया था, उसके अभिनय जीवन के नवीनतम चरण की सबसे सुनहरी फ़िल्में सब महिलाओं के कांधों पर खड़ी हैं. और इनमें सबसे ख़ास 'पीकू', जिसके लिए उन्होंने अपना नवीनतम राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता. महिला किरदार के नाम पर आधारित इस फ़िल्म को एक महिला ने ही लिखा है.
आज के अमिताभ के इस सबसे चमकीले अवतार, खडूस लेकिन हरदिलअज़ीज़ 'भास्कर बनर्जी' की भूमिका में दीपिका पादुकोण एवं जूही चतुर्वेदी दोनों का बराबर हिस्सा है.
भंसाली की 'ब्लैक' में अमिताभ एक ज़िद्दी अध्यापक की भूमिका में हैं, जो हमारी नन्ही सी नायिका की अन्धेरी ज़िन्दगी के तमाम बन्द दरवाज़े खोलता है. तो उधर अकेली ही कलकत्ता महानगर के हर तालाबन्द दरवाज़े से टकराती 'कहानी' की नायिका बिद्या बाग़ची से हमारा पूर्ण परिचय उनकी ही गूंजती आवाज़ 'एकला चालो रे' की टेक पर मुकम्मल तरीके से करवाती है.
याद आता है ठीक पचास साल पहले सिनेमायी दुनिया को जब वे आवाज़ के रूप में पहली बार मिले थे, मृणाल सेन की उस 'भुवन शोम' में भी उनके ज़िम्मे एक ज़िन्दादिल गुजराती लड़की 'गौरी' की दुनिया से पहचान करवाने आए थे.
रामगोपाल वर्मा की 'निशब्द' तथा आर बाल्की की 'चीनी कम' में उनके द्वारा निभाया अधेड़ प्रेमी किरदार समाज की मान्यताओं को तोड़ता हुआ 'वर्जित फल' चखने की ख्वाहिश करता है, तो करण जौहर की 'कभी अलविदा ना कहना' का ज़िन्दादिल ससुर सैम अपनी बहु माया को ऐसी शादी के बंधन से निकल जाने की सलाह देता है जिसमें प्यार ही बाक़ी ना बचा हो. अपनी जगह ये सभी दिलेर चयन हैं. मेरी राय में उस 'पा' वाली भूमिका से कहीं ज़्यादा दिलेर, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला.
'पिंक' मे आदर्शवादी वकील दीपक सहगल की भूमिका में वे तीन स्वातंत्र्यचेता लड़कियों का कवच बन, उनका सहारा बन खड़े हैं. इस पुरुषसत्तात्मक समाज को स्त्री की 'नहीं' का पूरा अर्थ समझाते. हालांकि आज भी सोसायटी को यह बात समझाने के लिए एक पुरुष, वो भी खुद महानायक की उपस्थिति चाहिए, यह तथ्य अखरता है.
पर यह बच्चन के किरदार से ज़्यादा हमारे सिनेमा और वृहत्तर समाज पर प्रतिकूल टिप्पणी है. एक बेहतरीन अभिनेता आपको सदा आदर्श भूमिकाएं नहीं देता. वो सिनेमा का नहीं, नैतिक शिक्षा की किताबों का काम है. रामायण की कथा में राम भी होंगे और रावण भी. और आधुनिक रामायणों में तो कई बार रावण भी राम के भेस में आता है, सीता से अग्निपरीक्षा मांगता. अमिताभ बच्चन के पचास साला सिनेमाई सफ़र में भारतीय समाज के तमाम काले-उजले पक्ष पढ़े जा सकते हैं. इतिहास को घटता देखा जा सकता है. उनकी निभाई भूमिकाओं में हमारे असंतोष हैं, तो हमारी कुंठाएं भी. हमारी मासूमियत है, तो हमारा छल भी. हमारी लापरवाहियाँ हैं, तो हमारी रूढ़ियाँ भी.
पर सबसे ऊपर अमिताभ ने यह अलिखित नियम पुन: स्थापित किया है कि चाहे यहाँ सौ में से नब्बे नायक सदा 'भीतर वाले' रहें, महानायक हमेशा कोई बाहर वाला होगा. आउटसाइडर. पोएटिक जस्टिस. फिर चाहे वो पेशावर से आए किसी फल विक्रेता का ज़हीन बेटा हो, या टैलेंट हंट में जीता कोई अजनबी सुदर्शन नौजवान. दिल्ली से आया किसी भूले-बिसरे स्वतंत्रता सेनानी का उग्र, उच्छृंखल लड़का हो या इलाहाबाद के इक हिन्दी कवि की बेचैन, महत्वाकांक्षी संतान.
सलीम खान ने बताया, ‘जंजीर’ की मेरी कथा के एक परिपूर्ण नायक के तौर पर मैं अमिताभ की ओर देखता हूं। ‘जंजीर’ ने इतिहास रचा! आज भी कलाप्रेमियों को ‘जंजीर’ के अमिताभ याद हैं। उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ नाम इस फिल्म ने दिया, वह आज तक कलाप्रेमियों के दिलों पर राज कर रहा है। अमिताभ को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला, यह खबर आनंद देने वाली है। इस खबर की प्रतीक्षा मुझे पिछले कई बरस से थी। भारतीय फिल्मों का सफर अमिताभ के बिना पूरा हो ही नहीं सकता। आज भी अमिताभ जिस ताकत के साथ काम कर रहे हैं, वह अचंभित करता है। मुझे सबसे पहले अमिताभ के आत्मविश्वास ने प्रभावित किया। उनकी दैहिक भाषा, व्यक्तित्व और आत्मविश्वास से ही उनकी ‘एंग्री यंग मैन’ की तस्वीर लोगों के दिल में बैठी। ‘‘अमिताभ को जो भी यश मिला, उसका अहम कारण उनकी प्रतिभा ही है। अत्यंत टैलेंटेड, ऐसा यह अभिनेता है। वह एक ऐसा कलाकार है जो कहानी और संवादों को न्याय देता है। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए। अमिताभ का अलगपन, उनकी ‘ऑर्गनाइज्ड’ और ‘अनुशासित’ जीवनशैली में ही शुमार हो गया है। सिनेमा जैसे रचनात्मकता में समय से परे जाने वाले क्षेत्र में भी अमिताभ बहुत ‘अनुशासित’ हैं। आज वे जिस शिखर पर हैं, उसके लिए उन्होंने एक लंबा सफर तय किया है।" (- जैसा उन्होंने संवाददाता रवींद्र भजनी को बताया। )
जावेद अख्तर ने बताया, ‘‘मेरे ख्याल से जितनी खूबियां अमिताभ में हैं, उतनी आमतौर पर किसी एक इंसान में नहीं होतीं। इतना टैलेंट होने पर आदमी थोड़ा बिखरा सा हो ही जाता है, सफलता मिल जाए तो वे बेपरवाह हो जाते हैं। लेकिन अनुशासित अमिताभ बेशुमार सफलता पचा ले जाते हैं। उनके हर किसी से बेहद अच्छे संबंध रहे। मेरे ख्याल से जब उन्होंने मिड 80 में लीड रोल छोड़ कैरेक्टर रोल्स करने शुरू किए थे, उन्हें यह अवॉर्ड तभी मिल जाना चाहिए था। इस उम्र में भी वे हर फिल्म को ऐसे लेते हैं, जैसे उन्हें इसी से ब्रेक मिलने जा रहा है। वह आज भी स्कूली बच्चे की तरह डायलॉग रटते हैं। उसे यूं याद करते हैं कि डायलॉग को आखिरी लफ्ज तक उल्टा भी सुना दें। उनका जज्बा यह रहता है कि अगला सीन तय करेगा कि उनका एक्टिंग करियर आगे है कि नहीं।’’
‘‘यह जो फोकस है, वह उनके भीतर लगातार चल रहा है। ठीक उसी रफ्तार से, जैसे अपने पीक के दौर में था। अपने काम को परफेक्ट करने की उनमें जो तमन्ना है, वह बेमिसाल है। मुझे याद है कि जब कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें चोट लगी। तो वे उससे कैसे विजेता की तरह निकले। वे अपने स्वभाव से ही फाइटर रहे हैं। अमिताभ पर आरोप भी लगे तो उन्होंने काम से ही जवाब दिया, जुबान से नहीं।’’ (- जैसा उन्होंने दैनिक भास्कर के संवाददाता अमित कर्ण को बताया।)
अमिताभ, अमिताभ हैं यह उनके व्यक्तित्व की ही खासियत है कि बगैर किसी खास कोशिशों के भी अपनी भूमिका को वह खास बना देते हैं। ‘पीकू’ में उनकी वाचलता खास होती है तो ‘पिंक’ में उनका मौन। 2005 में ‘ब्लैक’ के बाद 2009 में ‘पा’ के लिए अमिताभ बच्चन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा होती है। जब भी लगता है अब अमिताभ की पारी पूरी हुई, वे अगली पारी के लिए तैयार दिखते हैं। 2016 में अमिताभ फिर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए खड़े होते हैं फिल्म ‘पीकू’ की भूमिका के लिए।
40 वर्षों में चार राष्ट्रीय पुरस्कार सहित 400 से भी अधिक फिल्मफेयर, जी, आइफा जैसे निजी अवार्ड अमिताभ बच्चन की असीम अभिनय क्षमता के प्रमाण रहे हैं। यदि भारत के अलावा भी दुनिया भर के कई देश उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित करते हैं या विश्वविद्यालय उन्हें मानद डाक्टरेट प्रदान कर धन्य हो रही हैं तो यह कहीं न कहीं अमिताभ के अभिनय क्षमता के ही प्रमाण हैं। लोग दशक के सर्वश्रेष्ठ का खिताब पा कर धन्य हो जाते हैं, अमिताभ के पास ‘सदी के सर्वश्रेष्ठ’ के न जाने कितने खिताब सुरक्षित होंगे। वास्तव में अमिताभ बच्चन की महानता आज किसी भी विमर्श से परे है।
अमिताभ ने ‘पीकू’, ‘पिंक’,’सत्याग्रह’,’आरक्षण’,'बागबान', 'वक्त', 'फेमिली', 'सरकार' से लेकर 'ब्लैक', 'निशब्द' और 'कभी अलविदा न कहना' जैसी फिल्मों के साथ यह साबित करने की कोशिश की कि उम्र के साथ जिंदगी कमजोर नहीं पडती, अनुभव उसे मजबूत बनाते हैं। वास्तव में आने वाले दिनों में जब अमिताभ का समग्र मूल्यांकन होगा, यह तय करना मुश्किल होगा कि उन्हें एंग्री यंगमैन के रुप में याद रखा जाए या जीवंत प्रौढ के रुप में। अमिताभ के यदि समग्र अवदान को भुलाना भी चाहें तो, उस नागरिक के रुप में भुलाना संभव नहीं होगा, जिसने सक्रियता की उम्र बदल दी।
आशचर्य नहीं कि अमिताभ के अभिनय यात्रा के तीसरे और शायद सबसे महत्वपूर्ण चरण की शुरूआत 2000 बाद 60 की उम्र के बाद शुरु होती है। मोहब्बतें, अक्स, बागबान, देव, ब्लैक, सरकार, निःशब्द, चीनी कम, द लास्ट लीयर, और ‘पीकू’ ’पिंक’ यदि अमिताभ की कैरियर में शामिल नहीं हो पाती तो शायद आज उन्हें भी राजेश खन्ना की तरह भुला दिया जाना आसान होता। लेकिन 2000 के बाद अमिताभ के अभिनय क्षमता की विशेषता रही कि हर बार वे अपनी पिछली फिल्म से थोड़ा आगे दिखे, थोड़ा बेहतर।
अमिताभ अपने चरित्र को लगातार बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं, उसे नयी पहचान देने की कोशिस करते हैं। ‘ब्लैक’ का जिद्दी शिक्षक हो या अल्जाइमर पीड़ित बुजुर्ग, अमिताभ की अभिनय क्षमता विस्मित करती हैं, ‘अक्स’ में अमिताभ का एक नया ही रुप दिखता है। वास्तव में ‘मोहब्बतें’ के प्राचार्य नारायण शंकर, ‘देव’ के डीसीपी देव प्रताप सिंह, ‘सरकार’ के सुभाष नागरे या फिर ‘पिंक’ के दीपक सहगल या ‘पीकू’ के भास्कर, अमिताभ अपने स्टारडम को सुरक्षित रखते हुए उसे नई पहचान देने की कोशिश करते हैं।
अमिताभ वह हर नया जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं,जिसके लिए हिम्मत जुटाने में कोई भी युवा वर्षों गुजार दे। आज कौन बनेगा करोडपति में अमिताभ जिस स्नेहिल अभिभावक की तरह अब दिखते हैं भारतीय दर्शकों को एक अद्भत अपनत्व का अहसास हो रहा। शायद यही कारण है कि हरेक अनिवार्य अभियान के लिए अमिताभ अनिवार्य समझ जाते हैं,चाहे वह पल्स पोलियो की बात हो,या स्वच्छता अभियान की,या फिर गुजरात टूरिज्म या महाराष्ट्र हाटीकल्चर के ब्रांड अम्बेस्डर बनने की। आप इसे अमिताभ की सामाजिक भूमिका के रुप में स्वीकार करें,या अभिनय के प्रयोग के रुप में,अमिताभ ,अमिताभ हैं।
1971- बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (आनंद)
1973- बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (नमक हराम)
1977- बेस्ट एक्टर (अमर अकबर एंथनी)
1978- बेस्ट एक्टर (डॉन)
1990- फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड
1991- बेस्ट एक्टर (हम)
2000- Millenium Superstar
2000- बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (मोहब्बतें)
2001- क्रिटिक्स अवॉर्ड (अक्स)
2003–फिल्मफेयर पॉवर अवॉर्ड
2005–क्रिटिक्स अवॉर्ड (ब्लैक)
2005- बेस्ट एक्टर (ब्लैक)
2010–बेस्ट एक्टर (पा)
2011– फिल्मफेयर स्पेशल अवॉर्ड (फिल्म जगत में 40 साल पूरा करने के लिए)
2016- बेस्ट एक्टर (पीकू)
*आईफा पुरस्कार
2000- स्पेशल मानद पुरस्कार
2001- बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (मोहब्बतें)
2002- बेस्ट पर्सनालिटी ऑफ द ईयर
2006- बेस्ट एक्टर (ब्लैक)
2010- बेस्ट एक्टर (पा)
*एशियन फिल्म अवॉर्ड
2010 में हुए चौथे एशियन फिल्म पुरस्कार में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवॉर्ड
*पद्म भूषण- 2001
*पद्म श्री- 1984
*पद्म विभूषण- 2015
*नेशनल फिल्म अवॉर्ड
बेस्ट एक्टर- पीकू (2015), पा (2009), ब्लैक (2005), अग्निपथ (1990)
*स्क्रीन अवॉर्ड- जोड़ी नंबर वन (2003 बागवान)
पूरा नाम, विजय दीनानाथ चौहान, बाप का नाम, दीनानाथ चौहान, मां का नाम सुहासिनी चौहान, गांव मांडवा, उमर छत्तीस साल. (अग्निपथ)
हम जहां खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है. (कालिया)
आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, क्या है तुम्हारे पास? (दीवार)
आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लॉफ इंग्लिश बिकॉज इंग्लिश इज अ वेरी फन्नी लैंग्वेज. भैरों बिकम्स बायरन बिकॉज देयर माइंड्स और वैरी नैरो. (नमकहलाल)
रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, नाम है शहंशाह. (शहंशाह)
मूंछें हो तो नत्थूलाल जैसी वर्ना न हो. (शराबी)
डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. (डॉन)
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है – कि जिंदगी तेरी जुल्फों की नर्म छांव में गुजारनी पड़ती तो शादाब हो भी सकती थी. (कभी कभी)
https://www.youtube.com/watch?v=W5yva6-k8o0
अमिताभ इन दिनों 'कौन बनेगा करोड़पति' के 11वें सीजन में बतौर होस्ट नजर आ रहे हैं। अमिताभ डायरेक्टर नागराज मंजुले की 'झुंड' में दिखाई देंगे। 2 अक्टूबर को रिलीज होने जा रही चिरंजीवी स्टारर 'सई रा नरसिम्हा रेड्डी' में उनका कैमियो देखने को मिलेगा। अयान मुखर्जी की 'ब्रह्मास्त्र', शूजित सरकार की 'गुलाबो सिताबो' समेत उनकी कुछ और फिल्में भी कतार में हैं।
30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र में जन्मे दादा साहब का असली नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था। उन्होंने अपने 19 साल के करियर में 95 फिल्में बनाईं। इसमें से 26 शॉर्ट फिल्में थीं। इनमें मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, श्रीकृष्ण जन्म और लंका दहन सबसे ज्यादा मशहूर फिल्में हैं।
पिछले 10 विजेताओं की सूची
N |
वर्ष (समारोह) |
नाम |
इंडस्ट्री |
1. |
2018 (66वीं) |
अमिताभ बच्चन |
हिन्दी |
2. |
2017 (65वीं) |
विनोद खन्ना |
हिन्दी |
3. |
2016 (64वीं) |
के. विश्वनाथ |
तेलुगू |
4. |
2015 (63वीं) |
मनोज कुमार |
हिन्दी |
5. |
2014 (62वीं) |
शशि कपूर |
हिन्दी |
6. |
2013 (61वीं) |
गुलजार |
हिन्दी |
7. |
2012 (60वीं) |
प्राण |
हिन्दी |
8. |
2011 (59वीं) |
सौमित्र चटर्जी |
बंगाली |
9. |
2010 (58वीं) |
के. बालचन्दर |
तमिल-तेलुगू |
10. |
2009 (57वीं) |
डी. रामानायडू |
तेलुगू |
अमिताभ भले ही अपनी दमदार आवाज को लेकर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक अलग दम रखते हों लेकिन अपने करियर के शुरुआती दौर में उन्हें इसी के चलते कई बार रिजेक्शन का मुंह देखना पड़ा था. अमिताभ बच्चन ऑल इंडिया रेडियो में काम करना चाहते थे लेकिन उनकी भारी आवाज के चलते उन्हें दो बार रिजेक्शन का सामना करना पड़ा था. हालांकि ये बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि बाद में अमिताभ बच्चन ने सिने जगत में अपने करियर की शुरुआत वॉयस ओवर आर्टिस्ट के तौर पर की थी. अमिताभ बच्चन ने साल 1969 में नेशनल अवॉर्ड विनिंग फिल्म भुवन शोम के लिए अपनी आवाज दी थी. हालांकि अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत उन्होंने फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' से की थी.
अमिताभ बच्चन एक इंजिनीयर बनना चाहते थे. उनकी ये ख्वाहिश थी कि वे एक दिन भारतीय वायु सेना में काम करें और देश की सेवा करें. लेकिन उनका ये सपना पूरा नहीं हुआ. अमिताभ पहले कोलकाता में काम करते थे लेकिन फिर बाद में वो अपनी किस्मत आजमाने मुंबई आ गए. अमिताभ का कहना है कि उन्होंने ठान लिया था कि वो किसी कीमत पर घर वापस नहीं जाएंगे. इस स्थिति में शुरुआत में जब इंडस्ट्री में ज्यादा काम नहीं मिल रहा था. अपने स्ट्रगल के दिनों में उन्होंने घर न होने के कारण कुछ रातें मरीन ड्राइव तक पर गुजारीं.
अमिताभ बच्चन को स्टारडम तक ले जाने वालों में अपने जमाने के मशहूर अभिनेता रहे महमूद का भी हाथ रहा है. महमूद ने अमिताभ की शुरू के दिनों में काफी मदद की थी. जब अमिताभ अपने करियर के शुरुआत में थे और संघर्ष कर रहे थे तब महमूद ने अमिताभ को अपने घर में रहने की इजाजत दी थी.
महमूद ने ही अमिताभ को अपनी फिल्म 'बॉम्बे टू गोवा' का हीरो भी बनाया. फिल्म 'बॉम्बे टू गोवा' में महमूद शत्रुघ्न सिन्हा को विलेन लेना चाहते थे लेकिन शत्रुघ्न ने विलेन के रोल करने बंद कर दिए थे और ये फिल्म साइन करने के बाद उन्होंने छोड़ दी. लेकिन फिर अमिताभ ने उन्हें ये फिल्म करने के लिए राजी किया. अमिताभ की इस फिल्म ने अचाछा काम किया.
इसके बाद फिल्म 'जंजीर' आई और इस फिल्म ने अमिताभ को एक नई पहचान दी. लेकिन बता दें कि 'जंजीर' से पहले अमिताभ की लगातार 12 फिल्में फ्लॉप हुई थी. 'जंजीर' के बाद अमिताभ कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते गए और उस दौर के सुपरस्टार राजेश खन्ना की कुर्सी हिलने लगी. अमिताभ ने शुरुआत दौर में राजेश खन्ना के साथ फिल्म 'आनंद' में काम किया था उस दौरान राजेश खन्ना बहुत बड़े स्टार हुआ करते थे. लेकिन फिर कुछ साल बाद इन दोनों ने फिल्म 'नमक हराम' में साथ किया. फिल्म 'नमक हराम' का जिक्र करते हुए राजेश खन्ना ने एक इंटरव्यू में कहा था ''जब मैंने लिबर्टी सिनेमा में फिल्म 'नमक हराम' का ट्रायल शो देखा...तो मुझे पता लग गया था कि मेरा दौर खत्म हो गया है. मैंने ऋषि दा से कहा था कि ये रहा कल का सुपरस्टार.''
अमिताभ बच्चन और उनकी पत्नी जया भादुड़ी की पहली मुलाकात पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट में हुई थी. दूसरी बार वे ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'गुड्डी' के सेट पर मिले. कहा जाता है ऋषिकेश मुखर्जी ने 'गुड्डी' में नायक के तौर पर पहले न सिर्फ अमिताभ बच्चन को चुना था, बल्कि उनके साथ कई सीन भी शूट कर लिए गए थे, लेकिन बाद में अमिताभ को यह कहकर फिल्म से हटा दिया गया कि वह इस भूमिका में 'सूट' नहीं करते. फिल्म से भले ही अमिताभ को बाहर कर दिया गया था लेकिन तब तक जया और अमिताभ की नजदीकियां बढ़ चुकीं थी.
दोनों की दोस्ती और गहरी होती चली गई. इसके बाद अमिताभ की फिल्म 'जंजीर' ने जबरदस्त कामयाबी हालिस की. बिग बी इस फिल्म की कामयाबी का जश्न मनाने के लिए लंदन जाना चाहते थे लेकिन अमिताभ के माता-पिता को इस बात पर ऐतराज था. उन्होंने अमिताभ से कहा कि अगर जया को लंदन लेकर जाना है तो शाद करके लेकर जाओ. बस फिर क्या था.अमिताभ ने झटपट जया से शादी कर ली.
Posted By- Gaurav Shukla