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महिलाओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट एक और ऐतिहासिक फैसला, इस कानून में हुआ बदलाव

[Edited By: Rajendra]

Friday, 16th October , 2020 12:18 pm

सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में एक और ऐतिहासिक फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि घरेलू हिंसा की शिकार महिला के लिए घर का मतलब पति के किसी भी रिश्तेदार का घर भी है। उसे उनके घर में रहने का अधिकार दिया जा सकता है। घरेलू हिंसा कानून, 2005 की धारा 2 (एस) का दायरा विस्तारित करते हुए अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने ये फैसला सुनाया है।

बता दें कि घरेलू हिंसा कानून, 2005 की धारा 2 (एस) में पति के साझाघर की परिभाषा दिया गया है। जिसके मुताबिक हिंसा के बाद घर से निकाली महिला को साझाघर में रहने का अधिकार है। अब तक ये साझा घर पति का घर, चाहे ये किराए पर हो या संयुक्त परिवार का घर, जिसका पति सदस्य हो, माना जाता था। इसमें ससुरालियों के घर शामिल नहीं थे। वहीं साल 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि साझा घर में रिश्तेदारों के घर शामिल नहीं होंगे।

लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो जजों की पीठ के इस फैसले को पलट दिया और गुरुवार को दिए फैसले में कहा कि धारा 2(एस) में साझा घर की परिभाषा को पति की रिहायश और उसके संयुक्त परिवार की संपत्ति तक ही सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि इसमें पति के किसी भी रिश्तेदार का घर भी शामिल किया जदा सकता है। कोर्ट ने कहा कि इस कानून का मकसद महिलाओं को उच्चतर अधिकार देना है।

वहीं सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए साल 2005 में बने कानून को 'मील का पत्थर' करार दिया है और कहा कि, देश में उनके खिलाफ इस तरह के अपराध तेजी से फैले हैं और वे किसी न किसी रूप में रोजाना हिंसा का सामना करती हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि महिला ने पूरे जीवन एक बेटी, बहन, पत्नी, मां और साथी या अकेली औरत के तौर पर कभी भी खत्म नहीं होने वाली हिंसा और भेदभाव के चक्र का त्याग कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने कहा, वर्ष 2005 में लागू हुआ कानून इस देश की महिलाओं की रक्षा के लिए मील का पत्थर है।

देश की सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अहम फैसले में ये साफ किया है कि सास-ससुर के मालिकाना हक वाले मकान में विवाहिता को रहने का अधिकार है, भले ही उसके पति का उस सम्पत्ति में वारिसाना हक हो या नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पति के किसी भी रिश्तेदार का मकान, जिसमें महिला कभी घर की तरह रही हो, कानून के तहत 'शेयर्ड हाउसहोल्ड' माना जाएगा.

इससे पहले 2006 में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विवाहित महिला सिर्फ उसी उस घर में रहने की अधिकारी है, जिसमें उसके पति का मालिकाना हक है या संयुक्त परिवार होने के नाते उसके पति का उस घर में हिस्सा है. 2006 के फैसले के मुताबिक, महिला पति के अधिकार वाले मकान में आसरा मांग सकती है, लेकिन महिला के सास-ससुर जिस घर के मालिक हों, वहां इस तरह का दावा नहीं कर सकती.

लेकिन अब उच्चतम न्यायालय ने 'शेयर होल्डर्स 'की परिभाषा को विस्तार देते हुए कहा है कि यदि सास ससुर के नाम से प्रॉपर्टी है महिला वहां शादी के बाद से रहती आई है तो उसका उस घर में भी रहने का हक बनता है. न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी न्यायमूर्ति एम. आर. शाह की पीठ ने कानून के तहत 'साझा घर' की परिभाषा की व्याख्या वाले पहले के फैसले को 'गलत कानून' करार दिया इसे दरकिनार कर दिया.

शीर्ष अदालत का फैसला 76 वर्षीय दिल्ली निवासी सतीश चंदर आहूजा की याचिका पर आई जिन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी. दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2019 में निचली अदालत के एक फैसले को दरकिनार कर दिया जिसमें आहूजा की पुत्रवधू को उनका परिसर खाली करने का आदेश दिया गया था. आहूजा ने कहा था कि संपत्ति उनकी है इस पर न तो उनके बेटे या न ही उनकी पुत्रवधू का मालिकाना हक है जिसके बाद अदालत ने महिला को परिसर खाली करने के आदेश दिए थे.

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