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शराब, सिगरेट और टूटा दिल: हर इंटरलेक्चुअल धीमी मौत मर रहा, जानिए शिव ने ऐसा क्यों कहा

[Edited By: Admin]

Tuesday, 23rd July , 2019 05:21 pm

शिव कुमार बटालवी यानी पंजाब का वह शायर जिसके गीत हिंदी में न आकर भी वह बहुत लोकप्रिय हो गया। उसने जो गीत अपनी गुम हुई महबूबा के लिए बतौर इश्तहार लिखा था वो जब फ़िल्मों तक पहुंचा तो मानो हर कोई उसकी महबूबा को ढूंढ़ते हुए गा रहा था। आज मशहूर शायर शिव कुमार बटालवी का जन्मदिन है।  शिव 23 जुलाई 1936 को पंजाब के सियालकोट में पैदा हुए थे जो अब पाकिस्तान में है। शिव के पिता एक तहसीलदार थे लेकिन शिव काहे को शायर हो गए ये बात उन्हें भी नहीं पता। देश बंटे तो शिव हिंदुस्तान आ गए, यहां आकर वह गुरदासपुर में बस गए। शिव की नियति में ही था कि वो एक कवि बनेंगे इसलिए बचपन से ही नदी, पेड़ और संगीत के सुकून में उन्हें अपना अंतस मिलता था। सियालकोट में पैदा हुए शिव गुरदासपुर, बटाला, कादियां, बैजनाथ होते हुए नाभा पहुंचे लेकिन उन्होेंने अपने नाम में बटालवी जोड़ते हुए बटाला को ताउम्र ख़ुद से जोड़ लिया। 6 मई 1973 को उनका देहान्त हो गया। 

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गांव में पनपने वाली किसी सीधी-सादी कहानी की तरह शिव को भी मेले में एक लड़की से मुहब्बत हो गयी। जब वो लड़की नज़रों से ओझल हुई तो गीत बना

‘इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत ग़ुम है’
ओ साद मुरादी, सोहनी फब्बत
गुम है, गुम है, गुम है
ओ सूरत ओस दी, परियां वर्गी
सीरत दी ओ मरियम लगदी
हस्ती है तां फूल झडदे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी

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लड़कपन का ये प्यार ख़त्म हो गया जब बीमारी में उस लड़की की मौत हो गयी। इसके बाद बड़े होते शिव के दिल में फिर एक लड़की ने जगह बनाई। हालांकि उस लड़की के बारे में कहा जाता है कि वह गुरबख़्श सिंह प्रीतलड़ी की तीन बेटियों में से एक थी। लेकिन वह लड़की कौन थी इसके बारे में आधिकारिक रुप से आज तक पता नहीं चला और ना वो ख़ुद ही कभी लोगों के सामने आयी।

शराब की लत के कारण हुआ देहान्त

 

वे 1967 में वे साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सबसे कम आयु के साहित्यकार बने थे। शिव कुमार 'बटालवी' को भारत की साहित्य अकादमी द्वारा यह सम्मान पूरण भगत की प्राचीन कथा पर आधारित उनके महाकाव्य नाटिका लूणा (1965) के लिए दिया गया था, जिसे आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति के रूप में देखा जाता है और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सागोई की एक नई शैली को स्थापित किया। आज उनकी कविता आधुनिक पंजाबी कविता के अमृता प्रीतम और मोहन सिंह जैसे दिग्गज कवियों के बीच सिर उठाए बराबरी के स्तर पर खड़ी है, जिनमें से सभी भारत- पाकिस्तान बॉर्डर के दोनों तरफ लोकप्रिय हैं। उनके लेखन में उनकी चर्चित मौत की इच्छा हमेशा से झलकती रही है और 7 मई 1973 में महज 36 वर्ष की आयु में शराब की दुसाध्य लत की वजह से हुए लीवर सिरोसिस के परिणामस्वरूप पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर उनका देहात हो गया और भारतीय साहित्य का ये दमकता सूरज हमेशा के लिए अस्त हो गया । 

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एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं,आदमी, जो है, वो एक धीमी मौत मर रहा है. और ऐसा हर इंटेलेक्चुअल के साथ हो रहा है, होगा.

असां ते जोबन रुत्ते मरना… यानी मुझे यौवन में मरना है, क्यूंकि जो यौवन में मरता है वो फूल या तारा बनता है, यौवन में तो कोई किस्मत वाला ही मरता है” कहने वाले शायर की ख़्वाहिश ऊपर वाले ने पूरी भी कर दी. मात्र छत्तीस वर्ष की उम्र में शराब, सिगरेट और टूटे हुए दिल के चलते 7 मई 1973 को वो चल बसे. लेकिन, जाने से पहले शिव ‘लूणा’ जैसा महाकाव्य लिख गये, जिसके लिए उन्हें सबसे कम उम्र में साहित्य अकादमी का पुरूस्कार दिया गया. मात्र इकतीस वर्ष की उम्र में. ‘लूणा’ को पंजाबी साहित्य में ‘मास्टरपीस’ का दर्ज़ा प्राप्त है और जगह जगह इसका नाट्य-मंचन होता आया है.

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ज़्यादा पुराने न होते हुए भी उनके गीतों को भारत और पाकिस्तान में लोकगीत का दर्जा मिला हुआ है. वहीं दूसरी ओर ये गीत नए संस्करणों, नई आवाजों, नए संगीत  के साथ बार बार हमारे सामने आते रहे हैं.

आईये पंजाबी में लिखी उनकी एक ग़ज़ल ‘मैंनूं तेरा शबाब ले बैठा’, जिसे जगजीत ने भी गाया है, का हिंदी अनुवाद आपको पढ़वाते हैं:

मुझको तेरा शबाब ले बैठा,
रंग गोरा, गुलाब ले बैठा.

कितनी पी ली, कितनी बाकी है,
मुझको यही हिसाब ले बैठा.

अच्छा होता सवाल न करता,
मुझको तेरा जवाब ले बैठा.

फुर्सत जब भी मिली है कामों से,
तेरे मुख की किताब ले बैठा.

मुझे जब भी तुम हो याद आए,
दिन दहाड़े शराब ले बैठा.

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