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तालिबान को चुनौती दे रही महिलाएं, शुरू किया #donttouchmyclothes

[Edited By: Arshi]

Tuesday, 14th September , 2021 02:48 pm

तालिबानी (Taliban) बेड़ियों में जकड़े अफगानिस्तान के हालात फिलहाल स्थिर नहीं हैं. महिला छात्राओं के लिए तालिबान के नए और सख़्त ड्रेस कोड के ख़िलाफ़ अफ़ग़ान महिलाओं ने एक ऑनलाइन कैम्पेन शुरू किया है. वे इस कैम्पेन के लिए #DoNotTouchMyClothes और #AfghanistanCulture जैसे हैशटैग इस्तेमाल कर रही हैं. अफ़ग़ानी महिलाएं सोशल मीडिया पर रंगीन और पारंपरिक परिधानों में अपनी तस्वीरें शेयर कर रही हैं.
गूगल पर 'अफ़ग़ानिस्तान के पारंपरिक परिधान' टाइप करने पर और रंगों से भरे अफगानी महिलाओं के सांस्कृतिक पहनावे को देखकर दंग रह जाएंगे. उनका हर लिबास ख़ास लगता है. हाथ की कढ़ाई, भारी-भरकम डिज़ाइन, सीने के पास करीने से लगे छोटे-छोटे शीशे जिनमें खुद का अक्स देखा जा सकता है, लंबे घाघरे जो अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय नृत्य अट्टन के लिए फ़िट लगते हैं.

कुछ महिलाएं कढ़ाईदार टोपी भी पहनती हैं. कुछ के स्कार्फ़ भारी भरकम होते हैं. लेकिन ये इस बात पर निर्भर करता है कि पहननेवाली अफ़ग़ानिस्तान के किस इलाके से आती है. पिछले 20 सालों से अफ़ग़ान महिलाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी चाहे वो कामकाज की जगह हो या फिर कॉलेज या यूनिवर्सिटी में, ऐसे ही लिबास पहनती रही हैं. लेकिन इसी बीच एक अजीब बात भी हुई. पूरे शरीर को ढंकने वाले काले रंग की अबाया पहनी महिलाओं ने पिछले हफ़्ते तालिबान के समर्थन में काबुल में एक रैली निकाली.

काबुल में इस रैली में भाग लेने वाली एक महिला ने कहा कि आधुनिक कपड़े पहनने और मेकअप करने वाली अफ़ग़ान महिलाएं देश की मुस्लिम औरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं. उन्होंने ये भी कहा कि हम महिलाओं के लिए ऐसे अधिकार नहीं चाहते हैं जो विदेशी हों और शरिया क़ानून से मेल नहीं खाते हों.

लेकिन इसके बाद दुनिया भर की अफ़ग़ान महिलाओं ने तालिबान को अपना जवाब देने के लिए सोशल मीडिया को अपना हथियार बना लिया. अफ़ग़ानिस्तान में एक अमेरिकन यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफ़ेसर रहीं डॉक्टर बहार जलाली के शुरू किए गए सोशल मीडिया कैम्पेन में अन्य अफ़ग़ान महिलाओं ने अपने पारंपरिक परिधानों को सामने लाते हुए #DoNotTouchMyClothes और #AfghanistanCulture जैसे हैशटैग का इस्तेमाल किया.

बहार जलाली कहती हैं कि उन्होंने ये मुहिम इसलिए शुरू की क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की पहचान और उसकी संप्रभुता पर हमला हुआ था. हरे रंग के अफ़ग़ान लिबास में उन्होंने अपनी तस्वीर शेयर करते हुए दूसरी अफ़ग़ान महिलाओं से 'अफ़ग़ानिस्तान का असली' चेहरा दिखाने की अपील की. उन्होंने कहा, "मैं दुनिया को ये बताना चाहती थी कि मीडिया में तालिबान समर्थक रैली के दौरान जो तस्वीरें आपने देखीं वो हमारी संस्कृति नहीं है. वो हमारी पहचान नहीं है."इस तालिबान समर्थक रैली में महिलाओं ने जिस तरह के कपड़े पहने थे, उसे देखकर कई लोग चकित रह गए.

पारंपरिक रूप से रंगीन कपड़े पहनने वाले अफ़ग़ानों के लिए पूरे बदन को ढंकने वाले कपड़े एक विदेशी अवधारणा की तरह थे. अफ़ग़ानिस्तान के हर इलाके के अपने पारंपरिक परिधान हैं. इतनी विविधता के बावजूद जो बात कॉमन है, वो ये है कि उनमें रंगों, शीशों और एम्ब्रॉयडरी का ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है. ये सभी महिलाएं इस बात पर यक़ीन करती हैं कि उनके कपड़े ही उनकी पहचान हैं.

वर्जीनिया के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता स्पोज़मे मसीद ने ट्विटर पर लिखा, "ये हमारी असली अफ़ग़ान ड्रेस है. अफ़ग़ान महिलाएं इतने रंगीन और सलीकेदार कपड़े पहनती हैं. काले रंग का बुर्का कभी भी अफ़ग़ानिस्तान का पारंपरिक परिधान नहीं रहा है."मसीद कहती हैं, "हम सदियों से एक इस्लामिक मुल्क रहे हैं और हमारी नानी-दादी सलीके से अपने पारंपरिक परिधान पहनती रही हैं. वे न तो नीली चदरी पहनती थीं और न ही अरबों का काला बुर्का. हमारे पारंपरिक परिधान पांच हज़ार साल की हमारी समृद्ध संस्कृति और इतिहास का प्रतिनिधित्व करती हैं. हर अफ़ग़ान को इस पर गर्व होता है.

यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान के रूढ़िवादी इलाकों में रहने वाले लोग भी ये कहते हैं कि उन्होंने कभी भी महिलाओं को काले रंग का नक़ाब पहने कभी नहीं देखा था. 37 वर्षीय अफ़ग़ान रिसर्चर लीमा हलीमा अहमद ने बताया, "मैंने अपनी तस्वीर इसलिए पोस्ट की क्योंकि हम अफ़ग़ान औरते हैं. हमें अपनी संस्कृति पर गर्व है और हमारा मानना है कि कोई चरमपंथी गुट हमारी पहचान नहीं तय कर सकता है. हमारी संस्कृति स्याह नहीं है. ये रंगों से भरी है. इसमें ख़ूबसूरती है. इसमें कला है और इसी में पहचान है.

काबुल में हुई तालिबान समर्थक रैली का ज़िक़्र करते हुए एक महिला ने बताया, "हम अफ़ग़ान औरतें हैं और हमने ये कभी नहीं देखा कि हमारी महिलाएं पूरी तरह से शरीर को ढंकने वाले कपड़े पहनती हों. प्रदर्शन में आई महिलाओं ने जिस तरह के काले दस्ताने और बुर्के पहन रखे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि ये रैली के लिए ख़ास तौर पर सिलवाये गए हैं."
अफगानिस्तान के गांव में कोई काले या नीले रंग का बुर्का नहीं पहना करता था. लोग पारंपरिक अफ़ग़ानी परिधान ही पहनते थे. बुज़ुर्ग औरतें सिर पर स्कार्फ़ बांधा करती थीं जबकि कम उम्र की लड़कियां रंगीन शॉल ओढ़ा करती थीं. औरतें हाथ हिलाकर मर्दों का अभिवादन करती थीं. हाल में अफ़ग़ान महिलाओं पर अपने सांस्कृतिक पहनावे को बदलने के लिए दबाव बढ़ा है. उनसे कहा जा रहा है कि वो पूरे कपड़े पहनें ताकि लोग उन्हें देख ना सकें.
तालिबान का कहना है कि महिलाओं को शरिया क़ानून और स्थानीय परंपराओं के अनुसार पढ़ाई करने और काम करने की इजाज़त होगी. लेकिन इसके साथ ही सख़्त ड्रेस कोड के नियम भी लागू होंगे. कुछ अफ़ग़ान महिलाओं ने पहले ही इसका ख़्याल रखना शुरू कर दिया है और वह चदरी पहनने लगी हैं. नील रंग के इस लिबास से महिलाओं के सिर और उनकी आंखें ढंकी रहती हैं. काबुल और दूसरे शहरों में महिलाएं ये चदरी पहने हुए बड़ी संख्या में दिखने लगी हैं.

अफ़ग़ानिस्तान के उच्च शिक्षा मंत्री अब्दुल बाक़ी हक़्क़ानी ने कहा है कि यूनिवर्सिटियों में महिलाओं और पुरुष छात्रों को अलग-अलग बिठाया जाएगा और महिलाओं के लिए नक़ाब पहनना ज़रूरी होगा. हालांकि उन्होंने ये स्पष्ट नहीं किया है कि उनका मतलब सिर पर बांधे जाने वाले स्कार्फ़ से है या फिर चेहरे को पूरी तरह से ढंकने से.

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