साल 2013 की तरह साल 2022 में भी एक बार फिर से नीतीश कुमार ने BJP का साथ छोड़ कर अपने धुर विरोधी लालू यादव का दामन थाम लिया है, लेकिन साल 2013 और साल 2022 में एक बड़ा अंतर है, जिसे समझने की जरूरत है। दरअसल, साल 2013 और साल 2022 का यह अंतर अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि नीतीश कुमार की अहमियत बिहार की राजनीति में क्या और कितनी रह गई है ?
जून 2013 में गुजरात के तत्कालीन CM नरेंद्र मोदी को 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए BJP की इलेक्शन कैंपेन कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। भाजपा नेता और बिहार के डिप्टी CM सुशील मोदी ने बयान दिया कि यह लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को PM प्रोजेक्ट किए जाने को लेकर नाराज थे।
वे पहले ही ऐलान कर चुके थे कि BJP अगर मोदी को PM कैंडिडेट बनाती है, तो जदयू BJP से रिश्ता तोड़ लेगी। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, इस दौरान नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर इमेज भी बचाना चाहते थे।
नीतीश ने BJP कोटे के दो मंत्रियों को मिलने के लिए बुलावा भेजा, लेकिन दोनों मंत्रियों ने मिलने से मना कर दिया। इनमें एक नेता थे डिप्टी CM और बिहार में NDA के संयोजक नंद किशोर यादव। यह BJP और जदयू में बढ़ती कड़वाहट का एक बड़ा उदाहरण था।
दोनों मंत्रियों ने बताया कि नीतीश उनसे BJP के PM कैंडिडेट और नरेंद्र मोदी से जुड़े मसले पर बात करना चाहते थे। उन्होंने नीतीश को संदेश भिजवाया कि इस मसले पर BJP का केंद्रीय नेतृत्व ही आपसे बात करेगा। वहीं, भाजपा कोटे के मंत्रियों ने ऑफिस जाना और सरकारी फाइलें निपटाना बंद कर दिया।
नीतीश ने भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्खास्त कर दिया और 16 जून को गठबंधन से अलग हो गए। उस समय 243 सदस्यों वाली विधानसभा में जदयू के 118 एमएलए थे, जबकि सरकार चलाने के लिए 122 के बहुमत की जरूरत थी। विधानसभा में BJP के 91 विधायक थे। सरकार में बने रहने के लिए नीतीश को सिर्फ 4 और विधायकों की जरूरत थी।
19 जून को नीतीश ने सदन में विश्वास मत हासिल किया। इसके लिए जदयू के 117 और कांग्रेस के 4 विधायकों ने वोट किया। इसके अलावा 4 निर्दलीय विधायकों और एक CPI विधायक ने भी नीतीश सरकार के पक्ष में वोट किया था। विधानसभा में लालू की राजद के पास 22 सीटें थीं।
लेकिन इस बार तो सब कुछ-कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था। नीतीश कुमार क्या करने जा रहे हैं इसका अंदाजा राजनीतिक हल्कों में लंबे समय से लगाया जा रहा था। BJP के नेताओं को भी इस बात की जानकारी थी कि नीतीश कुमार उनका साथ छोड़ने वाले हैं लेकिन सबसे दिलचस्प और आश्चर्यजनक बात तो यह रही कि सटीक जानकारी होने के बावजूद BJP ने इस बार अपनी तरफ से नीतीश कुमार को मनाने की कोई कोशिश नहीं की।
यहां तक कि सोमवार को जब JDU खेमे की तरफ से सूत्रों के हवाले से यह खबर चलवाने की कोशिश की गई कि BJP के एक बड़े नेता ने नीतीश कुमार से बात की है तो BJP के हवाले से तुंरत इसका खंडन भी कर दिया गया।
दरअसल, इस बार BJP ने कई वजहों से नीतीश कुमार को मनाने की कोशिश नहीं की क्योंकि उन्हें यह लग गया कि नीतीश कुमार अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका बढ़ाने का मन बना चुके हैं और इसके लिए इन्हें बिहार में लालू यादव और दिल्ली में कांग्रेस की मदद की जरूरत पड़ेगी ही। सबसे बड़ी बात यह है कि BJP को यह लग रहा है कि नीतीश कुमार की लोकप्रियता बिहार में तेजी से कम हुई है।
बिहार BJP के एक बड़े नेता ने बताया कि 2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही यह साबित हो गया था कि नीतीश कुमार की पकड़ बिहार के मतदाताओं पर ढ़ीली पड़ गई है और जनता को अब सिर्फ BJP से ही उम्मीद नजर आ रही है। BJP के एक नेता ने तो यहां तक कहा कि अपनी महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थ और जिद के कारण नीतीश कुमार बिहार के हितों को नुकसान पहुंचा रहे थे।
भविष्य की संभावनाओं और नीतीश की जिद को देखते हुए BJP नेताओं ने नीतीश कुमार को मनाने , एनडीए गठबंधन में बनाए रखने और सरकार बचाने की कोई कोशिश अपनी तरफ से नहीं की लेकिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे और बिहार BJP प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल सहित पार्टी के अन्य नेताओं की तरफ से आ रहे बयानों से यह साफ जाहिर हो रहा है कि BJP नीतीश कुमार के इस धोखे को भुनाने के लिए बड़े स्तर पर रणनीति के तहत बिहार में अभियान चलाने जा रही है।