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ईडल्ब्यूएस कोटे पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 फीसदी आरक्षण को वैध करार दिया

[Edited By: Rajendra]

Monday, 7th November , 2022 12:32 pm

उच्चतम न्यायालय दाखिले और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आज अपना फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखा है. ईडब्ल्यूएस कोटा पर SC के 5 जजों में से दो ने आरक्षण को संवैधानिक ठहराया. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को दस फीसदी आरक्षण बना रहेगा, संविधान पीठ ने 2019 का संविधान में 103 वां संशोधन संवैधानिक और वैध करार . अदालत ने कहा - ईडब्ल्यूएस कोटे से संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं हुआ. हालांकि जस्टिस भट ने आरक्षण को असंवैधानिक माना. उन्होंने बाकी जजों से असहमति जताई. संविधान पीठ ने बहुमत से संवैधानिक और वैध करार दिया. जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने दिया बहुमत का फैसला. जबकि जस्टिस एस रवींद्र भट और CJI यू यू ललित ने असहमति जताते हुए इसे अंसवैधानिक करार दिया

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने ईडल्ब्यूएस आरक्षण को सही करार दिया. उन्होंने कहा कि यह कोटा संविधान के मूलभूत सिद्धांतों और भावना का उल्लंघन नहीं करता है. माहेश्वरी के अलावा जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने ईडल्ब्यूएस कोटे के पक्ष में अपनी राय दी. उनके अलावा जस्टिस जेपी पारदीवाला ने भी गरीबों को मिलने वाले 10 फीसदी आरक्षण को सही करार दिया.
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि मेरा फैसला जस्टिस माहेश्वरी की राय से सहमत है. उन्होंने कहा कि ईडल्ब्यूएस कोटा वैध और संवैधानिक है. हालांकि चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस एस. रवींद्र ने ईडल्ब्यूएस कोटे को अवैध और भेदभावपूर्ण करार दिया. इस तरह सामान्य वर्ग के गरीब तबके को मिलने वाले 10 फीसदी ईडल्ब्यूएस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने 3-2 से मुहर लगा दी है. 5 जजों की संवैधानिक बेंच में जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस एस. रविंद्र भट ही ऐसे थे, जिन्होंने इस कोटे को गलत करार दिय़ा. उन्होंने कहा कि यह कानून भेदभाव से पूर्ण है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. बता दें कि संविधान में 103वें संशोधन के जरिए 2019 में संसद से ईडल्ब्यूएस आरक्षण को लेकर कानून पारित किया गया था. इस फैसले को कई याचिकाओं के जरिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिस पर लंबी सुनवाई के बाद अदालत ने आज फैसला सुनाया है.

जस्टिस माहेश्वरी ने कहा कि ये आरक्षण संविधान को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, ये समानता संहिता का उल्लंघन नहीं. साथ ही आरक्षण के खिलाफ याचिकाएं खारिज कर दी गई. जस्टिस बेला त्रिवेदी ने भी आरक्षण को सही करार दिया. जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि अगर राज्य इसे सही ठहरा सकता है तो उसे भेदभावपूर्ण नहीं माना जा सकता, ईडब्ल्यूएस नागरिकों की उन्नति के लिए सकारात्मक कार्रवाई के रूप में संशोधन की आवश्यकता है. असमानों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता. SEBC अलग श्रेणियां बनाता है. अनारक्षित श्रेणी के बराबर नहीं माना जा सकता . ईडब्ल्यूएस के तहत लाभ को भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता.

इसने सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों को 25% सीटें बढ़ाने के लिए निर्देश दिया है. 4,315.15 करोड़ स्वीकृत रुपये की लागत से कुल 2.14 लाख अतिरिक्त सीटें तैयार किए गए हैं. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रस्तुत किया कि इस संबंध में की गई गणना के अनुसार, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण प्रदान करने के लिए, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आनुपातिक आरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना सामान्य के लिए सीट की उपलब्धता को कम नहीं किया गया है.

यह प्रस्तुत किया गया है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में कुल 2,14,766 अतिरिक्त सीटें सृजित करने की मंज़ूरी दी गई थी; और उच्च शिक्षण संस्थानों में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए 4,315.15 करोड़ रुपये खर्च करने की मंज़ूरी दी गई है.शीर्ष अदालत ने सुनवाई में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सहित वरिष्ठ वकीलों की दलीलें सुनने के बाद इस कानूनी सवाल पर 27 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था कि क्या ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया है. शिक्षाविद मोहन गोपाल ने इस मामले में 13 सितंबर को पीठ के समक्ष दलीलें रखी थीं और ईडब्ल्यूएस कोटा संशोधन का विरोध करते हुए इसे ‘‘पिछले दरवाजे से'' आरक्षण की अवधारणा को नष्ट करने का प्रयास बताया था.

पीठ में न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी, और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला भी शामिल थे. तमिलनाडु की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफाड़े ने ईडब्ल्यूएस कोटा का विरोध करते हुए कहा था कि आर्थिक मानदंड वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकता है और शीर्ष अदालत को इंदिरा साहनी (मंडल) फैसले पर फिर से विचार करना होगा यदि वह इस आरक्षण को बनाए रखने का फैसला करता है.

दूसरी ओर, तत्कालीन अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने संशोधन का पुरजोर बचाव करते हुए कहा था कि इसके तहत प्रदान किया गया आरक्षण अलग है तथा सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए 50 प्रतिशत कोटा से छेड़छाड़ किए बिना दिया गया. उन्होंने कहा था कि इसलिए, संशोधित प्रावधान संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है.

शीर्ष अदालत ने 40 याचिकाओं पर सुनवाई की. ‘जनहित अभियान' द्वारा 2019 में दायर की गई प्रमुख याचिका सहित लगभग सभी याचिकाओं में संविधान संशोधन (103वां) अधिनियम 2019 की वैधता को चुनौती दी गई है. केंद्र सरकार ने एक फैसले के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों से शीर्ष अदालत में ईडब्ल्यूएस कोटा कानून को चुनौती देने वाले लंबित मामलों को स्थानांतरित करने का अनुरोध करते हुए कुछ याचिकाएं दायर की थीं. केंद्र ने 103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के माध्यम से दाखिले और सरकारी सेवाओं में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है.

ईडल्ब्यूएस कोटे पर वैधता को लेकर फैसला सुनाते हुए जस्टिस जेबी पारदीवाला ने अहम टिप्पणी की. उन्होंने कहा कि यह भी विचार करने की जरूरत है कि आरक्षण कब तक जरूरी है? उन्होंने कहा कि गैर-बराबरी को दूर करने के लिए आरक्षण कोई अंतिम समाधान नहीं है. यह सिर्फ एक शुरुआत भर है. इस बीच एक्सपर्ट्स का कहना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की वैधता को सुप्रीम कोर्ट से मंजूर किए जाने के बाद इस तर्ज पर राज्यों में भी कुछ जातियों को आरक्षण प्रदान करने पर विचार हो सकता है.

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