मंदी के भंवर में फंसती देश की अर्थव्यवस्था मोदी सरकार के लिए चिंता का सबब बन चुकी है. हाल में आए जीडीपी (Gross domestic product) के आंकड़े बताते हैं कि यह साढ़े 6 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है. आखिर इसके आपके लिए क्या मायने हैं? और, एक फीसदी जीडीपी गिरने से खत्म हो जाती हैं कितनी नौकरियां?
2018-19 में प्रति व्यक्ति मासिक आय 10534 रुपये है. अगर देश की जीडीपी 5 फीसदी से बढ़ेगी तो 526 रुपये और 4 फीसदी से बढ़ेगी तो 421 रुपये प्रति व्यक्ति की सालाना आय में वृद्धि होगी. मतलब, एक फीसदी की गिरावट से आमदनी में सालाना 1264 रुपये की कमी आ जाएगी. इतना ही नहीं, अगर विकास दर 5 फीसदी से ही आगे बढ़ती है तो मोदी सरकार का 2024 में भारत की जीडीपी को 5 ट्रिलियन डॉलर पहुंचाने का लक्ष्य दूर की कौड़ी ही साबित होगा.
मंदी का आलम यह है कि कुछ सेक्टरों में इसके परिणाम साफ नजर आने लगे हैं. ऑटो, कपड़ा, सूक्ष्म,लघु व मध्यम उद्योग (MSME), रियल स्टेट, FMCG में नौकरियों के जाने, कंपनियों के घाटा बढ़ने या बंद होने की खबरें आए दिन सुनने को मिल जाती हैं. भारत की इकोनॉमी ग्लोबल होने की वजह से भी विदेशी हलचल का सीधा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. यही वजह है कि वैश्विक व्यापार में मंदी और अमेरिका-चीन के बीच व्यापार युद्ध भी भारत में मंदी का कारण बन रहा है.
भारत की अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा रही है. ताजा आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं. सरकार ने जो आंकड़े जारी किए हैं उनसे पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था जो 2019 के पहली तिमाही में जो 8 फीसदी की दर से बढ़ रही थी वो अब कम होती जा रही है. वित्तीय वर्ष 2019 की दूसरी तिमाही में 7 फीसदी और तीसरी तिमाही में 6.6 फीसदी पर विकास दर आ गई है. इतना ही नहीं वित्तीय वर्ष 2020 के पहली तिमाही में जहां अर्थव्यवस्था 5.8 पर थी वह कम होते-होते दूसरी तिमाही तक 5 फीसदी पर पहुंच गई है. ये आंकड़े पिछले 6 सालों में न्यूनतम स्तर है. देश में 2012 में इसी तरह की मंदी का सामना किया था. हाल की मंदी की वजह घरेलू मांग में कमी, निवेश में कमी, ऑटो सेक्टर में सुस्ती, विनिर्माण गतिविधियों (मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर) में गिरावट प्रमुख है. नीचे हम विस्तार से बताएंगे कि अर्थव्यवस्था में किस वजह से मंदी छाई हुई है. लेकिन पहले जीडीपी का मतलब समझ लें, जिसके आंकड़े सरकार ने हाल ही में जारी किए हैं.
जीडीपी में एक फीसदी की गिरावट से सालाना 1264 रुपये की आमदनी में कमी आ जाएगी.
जीडीपी को आम भाषा में तो देश के विकास से जोड़कर देखा जाता है. लेकिन इसकी बारीक परिभाषा ये है कि, किसी एक खास अंतराल (एक वित्तीय वर्ष) में देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य को जीडीपी कहा जाता है. इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि एक देश में कुल वस्तुओं और सेवाओं से अर्जित आय (कमाई) में से खर्चों को घटाने पर जो आय निकलती है उसे जीडीपी कहा जाता है. आमतौर पर तीन प्रमुख घटक (कृषि, उद्योग और सेवा) के उत्पादन के औसत के आधार पर जीडीपी की दर तय होती है.
भारत में 1950 से जीडीपी मापने की व्यवस्था है. अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के मद्देनज़र आधार वर्ष की अवधि में समय-समय पर बदलाव किए जाते हैं. आजकल देश की जीडीपी को मापने के लिए 2011-12 को आधार वर्ष माना गया है. आधार वर्ष को एक उदाहरण से समझते हैं. माना कि 2011 में एक वस्तु की कीमत 100 रुपया है तो 20 वस्तुओं की कीमत 2000 रुपया हो गई. मतलब 2011 में जीडीपी 2000 रुपये हो गई. 2018 में उत्पादन में कमी आई और केवल 10 वस्तुओँ का उत्पादन हुआ, लेकिन वस्तु की कीमत 200 रुपया हो गयी. इस तरह देखें तो अब भी जीडीपी 2000 रुपये ही है, जबकि उत्पादन घटा है. यहीं पर आधार वर्ष का फॉर्मूला काम आता है.
जीडीपी किसी भी देश की आर्थिक गतिविधियों को बताता है. अगर अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो विकास दर में तरक्की और गिरावट होगी तो विकास दर में मंदी कहा जाएगा. अब हम यहां आपको जीडीपी को आम भाषा में समझाने का प्रयास करते हैं. जीडीपी में मंदी का मतलब होता है कि लोगों के क्रय (खरीदने की) शक्ति में कमी. लोग जब सामान खरीदने लगते हैं तो कंपनियों की कमाई होती है. कंपनियों में नई नौकरियां निकाली जाती हैं. कर्मचारियों-कामगारों को वेतन मिलता है. जब वेतन मिलता है तो वो लोग भी अधिक से अधिक सामान खरीदने लगते हैं. इस तरह पैसा घूमता रहता है. लेकिन इसके उलट लोगों की अगर कमाई नहीं होगी तो उनके खरीदने की शक्ति में कमी आएगी, कंपनियों का सामान नहीं बिकेगा. सामान नहीं बिकेगा तो कंपनियों की कमाई नहीं होगी. कमाई नहीं होगी तो कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जाएगा. इस तरह अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ जाएगी. सरकारें उत्पादकों और उपभोक्ताओं की बीच इस तरह से सामंजस्य (नियम-कानून के माध्यम से) स्थापित करती है कि किसी को अत्यधिक नुकसान ना हो, लेकिन अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि जारी रहे.
जीडीपी के नीचे रहने का मतलब है कि देश में रहने वाले लोगों की आमदनी में कमी. जीडीपी के नीचे रहने से सबसे अधिक मार गरीबों पर पड़ती है. एक उदाहरण से इसे समझते हैं. भारत में 2018-19 में प्रति व्यक्ति मासिक आय 10534 रुपये है और जीडीपी 5 फीसदी से बढ़ रही है. इस तरह अगले साल उसकी मासिक आय 11,060 रुपये हो जाएगी. मतलब 526 रुपये का इजाफा. अगर जीडीपी 4 फीसदी रहेगी तो सालाना आय में 421 रुपये की वृद्धि होगी. अब आपको समझ आ गया होगा कि जीडीपी में एक फीसदी की गिरावट से आय में क्या फर्क पड़ता है. एक फीसदी की गिरावट से 105 रुपये प्रति माह यानी 1264 रुपये सालाना की आय में कमी आ जाएगी.
2011-12 को नया आधार वर्ष मानते हैं. तब 2019-20 के पहली तिमाही में 35.85 लाख करोड़ का अनुमान है जबकि 2018-19 के पहले तिमाही में यह 34.14 लाख करोड़ था. मतलब जीडीपी में वृद्धि दर 5 फीसदी से हुई. 2018 में भारत की जीडीपी 2.85 ट्रिलियन डॉलर 204.46 लाख करोड़ की थी. अगर भारत 8 फीसदी की दर से विकास बढ़ता है तब तो संभव है कि 2024 तक देश 5 लाख करोड़ डॉलर यानी करीब 350 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था बन जाएगी. लेकिन, अगर भारत 5 फीसदी की दर से विकास करता है तो भारत के लिए 2024 तक करीब 350 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था बन पाना असंभव होगा. 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे पीएम मोदी का तर्क है कि जब देश को एक ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनने में 55 साल लग गए. जबकि उनकी सरकार के पिछले पांच साल के शासन में ही अर्थव्यवस्था 2.85 ट्रिलियन डॉलर 204.46 लाख करोड़ को पार कर गई. इसी को आधार मानकर सरकार 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का दम भर रही है.
भारत की अर्थव्यवस्था 2014 में (1.9 ट्रिलियन), 2015 में (2 ट्रिलियन), 2016 में (2.1 ट्रिलियन), 2017 में (2.3 ट्रिलियन), 2018 में (2.7 ट्रिलियन), 2019 में (2.8 ट्रिलियन) रही. यह विकास दर औसतन 8 फीसदी है जबकि 2024 में (5 ट्रिलियन) बनने के लिए भारत को औसतन 11.5 फीसदी की विकास दर चाहिए होगी जो अभी दूर के सपने नजर आ रहे हैं. मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था में कुछ बड़े सुधारात्मक कदम उठाए ताकि भारत 2024 तक अपने लक्ष्य को हासिल कर ले, लेकिन उनके परिणाम फिलहाल नकारात्मक ही आए हैं.
भारत में कर सुधारों के तहत 2017 में जीएसटी को लागू किया गया. तब यह समझा गया कि इसके लागू होने से भारत की अर्थव्यवस्था को चार चांद लग जाएंगे और विभिन्न तरह के अप्रत्यक्ष करों से मुक्ति मिल जाएगी. तब इसे इतना बड़ा रिफॉर्म मानकर पेश किया गया कि रात को 12 बजे तक संसद सत्र चला और इस जीएसटी व्यवस्था को लागू कर दिया गया. बाद के सालों में इसमें सुधार किया गया. आज आलम यह है कि जिस रिफॉर्म को सरकार अपनी आमदनी का जरिया मान रही थी उससे आमदनी कम होती जा रही है. राजस्व विभाग की ओर से जारी आंकड़ों में पता चला कि अगस्त महीने में जीएसटी कलेक्शन फिर 1 लाख करोड़ रुपये ने नीचे रहा है. गौरतलब है कि जुलाई 2019 में यह राशि एक लाख करोड़ रुपये रही थी.
निवेशकों को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में बड़ी उम्मीदें थी. इन उम्मीदों पर पानी फिर गया जब सरकार ने अपने बजट में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों पर सरचार्ज लगाने का फैसला किया. इससे विदेशी निवेश इतने डर गए कि उन्होंने इस प्रस्ताव को लागू होने से पहले ही अपने पैसे निकालने शुरू कर दिए. विदेशी निवेशक किसी भी देश में निवेश कर उस देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं साथ ही मुनाफा भी कमाते हैं. लेकिन सरकार के प्रस्ताव मात्र से ही निवेशक डर गए और पैसा निकालना शुरू कर दिया. अंततः सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा.
वाहन विनिर्माताओं के संगठन सियाम ने ऑटो सेक्टर में गिरावट का मुख्य कारण जीएसटी को बताया है. सरकार ने वाहनों पर 28 फीसदी तक जीएसटी लगा रखी है. इतना ही नहीं इसके बाद इसमें उपकर (सेस) भी जोड़ा जाता है कि जिससे लोगों की वाहन खरीद से मोहभंग हुआ है. इसके अलावा, लोगों में बीएस 4 वाहन की बिक्री पर रोक लगने को लेकर भी कंफ्यूजन था.
मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था में सुधारात्मक कदम उठाते हुए नोटबंदी जैसा फैसला लिया. इस फैसले से छोटे उद्योगों को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. रिजर्व बैंक ने भी इस बात को माना है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, नोटबंदी के बाद एमएसएमई सेक्टर को लोन नहीं मिला, लोन डिफॉल्ट्स के मामले बढ़े जिस कारण सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करने वाले इस सेक्टर से लोगों को अपनी नौकरियां गवांनी पड़ी.
एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) द्वारा वाणिज्यिक क्षेत्र को दिये जाने वाले कर्ज में भारी गिरावट दर्ज की गई. जिस कारण इस सेक्टर को नकदी की समस्या से दो चार होना पड़ा. नकदी नहीं मिल पाने के कारण लोगों में घर खरीद, वाहन खरीद नहीं कर पाए और ना ही नए कारोबार को खोल सके.
लोग भविष्य के लिए निवेश करते हैं. लेकिन सरकार की इस पर नज़र पड़ी और सरकार ने निवेशकर्ताओं पर 2018 में दो तरह के टैक्स लगा दिया- शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स. इस टैक्स को लगाने के बाद लोगों को लगा कि निवेश से जो मुनाफा कमाया जाता है अगर उसपर टैक्स देना पड़े तो क्यों ना कुछ और किया जाए. लोगों ने निवेश करना कम कर दिया. जब सरकार को ये बात समझ में आई तो फिर पिछले महीने ही सरकार को यह टैक्स भी वापस लेना पड़ा.
पिछले ही महीने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई कदमों की घोषणाएं की है. ये कदम अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में कितने प्रभावी होंगे वो तो आने वाला वक्त ही बताएगा. हालांकि सरकार यह भी कह चुकी है कि ये कदम पर्याप्त नहीं हैं इसलिए कुछ समय बाद और भी कुछ नई घोषणाएं की जाएंगी.
बीते शुक्रवार को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अप्रैल-जून तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी कर दिए हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि देश की आर्थिक विकास की दर घटकर 5 फीसदी रह गई है. करीब 7 साल में भारत के विकास दर की यह सबसे सुस्त रफ्तार है.
किस देश का क्या हाल
- बांग्लादेश की जीडीपी 7.90 फीसदी रही.
- नेपाल की जीडीपी 7.10 फीसदी पर है.
- चीन की जीडीपी ग्रोथ 6.2 फीसदी रही जो उसके 27 साल के इतिहास में सबसे कम है.
- हंगरी और मलयेशिया की जीडीपी क्रमश : 4.90 फीसदी है.
- यूक्रेन और पोलैंड की जीडीपी क्रमश: 4.60 फीसदी और 4.50 फीसदी है.
- अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ 2.30 फीसदी रही है.
- UAE की जीडीपी 2.20 फीसदी और साउथ कोरिया की जीडीपी 2.10 फीसदी पर है.
-ऑस्ट्रेलिया और ईरान की जीडीपी क्रमश: 1.80 फीसदी है.
- सऊदी अरब और स्विट्जरलैंड की जीडीपी 1.70 फीसदी है.
- फ्रांस की जीडीपी 1.40 फीसदी की दर से बढ़ रही है.
- जापान और ब्रिटेन की जीडीपी क्रमश: 1.20 फीसदी की दर से ग्रो कर रही है.
( साल 2018-2019 तक के ये आंकड़े https://tradingeconomics.com/ से लिए गए हैं. )
यहां बता दें कि हर देश के जीडीपी को तय करने का पैमाना अलग होता है. भारत में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ उत्पादन और सेवाओं के मूल्यांकन के लिए एक आधार वर्ष यानी बेस ईयर तय करता है.
आप कैसे होते हैं प्रभावित
दरअसल, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का सबसे अहम पैमाना होता है. जीडीपी किसी खास अवधि के दौरान देश के भीतर वस्तु और सेवाओं के प्रोडक्शन की कुल कीमत है. भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे महीने यानी तिमाही आधार पर होती है.
अगर जीडीपी का आंकड़ा बढ़ता है तो इसका मतलब यह होता है कि देश की विकास की रफ्तार ट्रैक पर आगे बढ़ रही है. वहीं अगर ये आंकड़े लगातार कम होते हैं तो देश के लिए खतरे की घंटी होती है. जीडीपी कम होने की वजह से लोगों की औसत आय कम हो जाती है और लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं. इसके अलावा नई नौकरियां पैदा होने की रफ्तार भी सुस्त पड़ जाती है. यहां बता दें कि सरकारी संस्था CSO ये आंकड़े जारी करती है.