आज हमारे देश की स्थिति पिछले 50 साल पहले जैसी होने के हालात में हैं। पचास साल पहले हम सब गांवों में रहते थे और अपने ही गांव में किसान के रूप में खेती-बाड़ी एवं पशुपालन कर अपना जीवन यापन करते थे। गांव में मुश्किल से एक-दो दुकान हुआ करती थीं या यूं कहा जा सकता है कि यह एक-दो दुकान भी साठ सत्तर साल पहले थी ही नहीं। समय का दौर आगे बढ़ता गया और गांव में दुकानें भी बढ़ने लगीं साथ ही गांव के लोग शहरों में जाकर कमाने लगे।
खेती बाड़ी एवं पशुपालन के आधार पर चलने वाली जिंदगी धीरे-धीरे बाजार उन्मुक यानी मार्केट ओरियंटेड होने लगीं। लोग गांव में पहले अपनी छोटी से छोटी जमीन में भी बारिश के सीजन में छोटी-मोटी बुवाई जरूर करते थे हर कोई कुछ न कुछ पैदावार जरूर करता था इससे हमें कभी बाजार जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अपने ही गांव में पैदा हुए अन्न धन से हमारा गुजारा चलता रहता था। घर में एक गाय अथवा भैंस होने के कारण दूध-घी-दही-छाछ भी मिल जाता था। हर व्यक्ति अपने घर में पशुपालन भी करता था। ऊंट, बकरी, भेंड़, गाय, भैंस से लोगों की जिंदगी का गुजारा चलता था। प्रकृति में आये बदलाव के कारण ग्रामीण भारत में बारिश की कमी के चलते अकाल के दौर पड़ने लगे तो गांव के लोग शहरों की ओर नौकरी-धंधा करने जाने लगे। धीरे-धीरे लोग शहर में स्थायी होते गए कमाना खाना चलता रहा। गांव में लोगों ने खेती बाड़ी धीरे-धीरे कम कर दी और लोग बाजार पर निर्भर होने लगे। जिससे देश के ग्रामीण अपने जीवनकाल में 50-60 साल पहले पूरे साल का राशन एक साथ ही सीजन में अपने घर में भर कर रखते थे वे आज रोज लाकर रोज खाने के आदी हो गए हैं।
कोरोना वायरस के कारण जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, लोग अपने शहर छोड़कर गांव की ओर उमड़ रहे हैं। समाजसेवी लोग भूखी-परेशान जनता को राशन बांट रहे हैं कहा जा रहा है कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं या तो उनके पास खाद्य सामग्री नहीं है। पिछले सोमवार को जैसे ही 21 दिन की बंदी लागू की गई दूसरे ही दिन से लोगों में खाने की सामग्री के लिए अफरा-तफरी मच गई। क्या देश में खाद्य सामग्री की कमी है। या उस खाद्य सामग्री के पहुंचने के लिए ट्रांसपोर्ट व्यवस्था बंद हुई है। अगर ऐसा नहीं है तो क्यों लोग इतना हायतौबा मचा रहे हैं। राशन-दवाई पानी एवं सफाई व्यवस्था बराबर काम कर रही है तो फिर लोग क्यों शहर छोड़कर गांव भाग रहे हैं।
आज जो लोग शहर छोड़कर भाग रहे हैं उनकी चिंता खाद्य सामग्री नहीं है बल्कि उनकी चिंता ये है कि इन 21 दिनों के बाद भी शहर दोबारा सुचारू रूप से चालू होगा। इसकी आशंका है। यह आशंका भी उनकी सही है कि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि अगले 2-4 महीने शहरों के कारखाने फिर शुरू हो जाएंगे। मजदूर, कामगारों की चिंता वाजिब है। और हालात को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि देश के शहरों में चलने वाले विभिन्न कारखाने अगले चार- छह महीनों में फिर शुरू हो पाएंगे। अगर ये सारे कारखाने अगले चार-छह महीने शुरू भी हो गए तो इंटरनेशनल मार्केट में एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट को शुरू होने में भी छह महीने से लेकर एक साल भी लग सकता है। जैसे कि मैंने शुरू में बताया कि हमारी ग्रामीण व्यवस्था पचास-साठ साल पहले गांव के अपने उत्पाद पर निर्भर थी आज हम बाजार पर निर्भर हो गए हैं।
अब हम फिर एक बार ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां सोचने की जरूरत है कि क्या हमें आने वाले सालों में बाजार पर निर्भर रहना है अथवा ग्रामीण व्यवस्था को मजबूत करते हुए फिर से आत्मनिर्भर होना है। आने वाले चार-छह महीने हमारे देश के भविष्य को लेकर हम निर्णायक मोड़ पर हैं। थोड़े कड़वे शब्दों में अगर मैं कुछ कहूं तो ऐसा कहा जा सकता है कि हम इंसान होते हुए भी जानवरों की तरह रोज काम कर रोज खाने वाले लोग बनना चाहते हैं। अथवा साल भर का राशन एक साथ पैदाकर उसे संभालकर रखने वाले एक व्यवस्थित समाज की पुन स्थापना करना चाहते हैं।
देश इस वक्त एक विकट समस्या के साथ निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। देश वासियों को अपने भविष्य के साथ ही जीवन बचाने के लिए सोचने समझने की जरूरत है।
आज हम जहां कहीं भी हैं सामाजिक दूरी बनाये रखते हुए कुछ कर सकते हैं तो जरूर करना चाहिए। देश के लोगों के उज्जवल भविष्य के लिए हमें वही पुरानी पचास--साठ साल पहले वाली व्यवस्था फिर कायम करने के बारे में सोचना चाहिए। जिसमें बाजार पर निर्भर न होकर हम अपने खाने के लिए स्वनिर्भर हो जाएं। दुनियाभर में एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बाजार कब शुरू होगा। इसकी चिंता किए बगैर हम अपना स्थानीय कारोबार-खेतीबाड़ी एवं पशुपालन जल्द से जल्द शुरू कर भारत को एक बार फिर विकास की दौड़ में आगे खड़ा कर सकते हैं। हर घर में खेतीबाड़ी एवं पशुपालन हो तो क्या जरूरत है हमें गौशाला एवं वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम की।
संपादकीय विश्लेषण- Bharatkumar Solanki