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B'dy Spcl: साहिर लुधियानवी के प्यार में दीवानी थीं अमृता प्रीतम, उन्हें ‘मेरा शायर, मेरा खुदा और मेरा देवता’ कहकर बुलाती थीं

[Edited By: Admin]

Saturday, 31st August , 2019 12:29 pm

प्रसिद्ध कवयित्री, उपन्यासकार और निबंधकार अमृता प्रीतम की 100वीं जयंती पर गूगल ने डूडल बनाया है. वह अपने समय की मशहूर लेखिकाओं में से एक थीं. उनका जन्म पंजाब के गुजरांवाला जिले में 31 अगस्त 1919 को हुआ था. उनका ज्यादातर समय लाहौर में बीता और वहीं पढ़ाई भी हुई. किशोरावस्था से ही अमृता को कहानी, कविता और निबंध लिखने का शौक था. जब वह 16 साल की थीं तब उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ. 100 से ज्यादा किताबें लिख चुकीं अमृता को पंजाबी भाषा की पहली कवियित्री माना जाता है. भारत-पाकिस्तान बंटवारे पर उनकी पहली कविता अज आंखन वारिस शाह नू बहुत प्रसिद्ध हुई थी.

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अमृता प्रीतम को देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण मिला था. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. 1986 में उन्हें राज्यसभा के लिए नॉमिनेट किया गया था. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के लिए भी काम किया.

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अमृता की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' बेहद चर्चित है. उनकी किताबों का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ. 31 अक्टूबर 2005 को उनका निधन हो गया था.

बचपन से था लिखने का शौक

अमृता प्रीतम जब किशोरावस्था में थी तभी से ही पंजाबी में कविता, कहानी और निबंध लिखना लिखना शुरू कर दिया. जब वह 11 साल की हुई उनके सिर से मां आंचल छीन गया. मां के निधन होने के बाद कम उम्र में ही उनके कंधों पर जिम्मेदारी आ गई.

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16 साल की उम्र में प्रकाशित हुआ पहला संकलन

अमृता प्रीतम उन विरले साहित्यकारों में से है जिनका पहला संकलन 16 साल की आयु में प्रकाशित हुआ था. जब 1947 में विभाजन का दौर आया. उस दौर में उन्होंने विभाजन का दर्द सहा था, और इसे बहुत क़रीब से महसूस किया था, इनकी कई कहानियों में आप इस दर्द को स्वयं महसूस कर सकते हैं.

विभाजन के समय इनका परिवार दिल्ली में आकर बस गया. अब इन्होंने पंजाबी के साथ-साथ हिंदी में भी लिखना शुरू किया. बता दें, उनकी शादी 16 साल की उम्र में एक संपादक से हुई. जिसके बाद साल 1960 में उनका तलाक हो गया.

अमृता प्रीतम ने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है. अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं, जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ.

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सम्मान और पुरस्कार

अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (अंतरराष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार.

वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हें 1969 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया.

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हो चुकी हैं इन पुरस्कारों से सम्मानित

- साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956)

- पद्मश्री (1969)

- डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- 1973)

- डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- 1973)

- बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया – 1988)

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)

- डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतन- 1987)

- फ्रांस सरकार द्वारा सम्मान (1987)

  • पद्म विभूषण (2004)

अमृता प्रीतम की खास कविताएं

1. एक मुलाकात

कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात

हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे ..

सामने एक पूरी रात थी

पर आधी नज़्म एक कोने में सिमटी रही

और आधी नज़्म एक कोने में बैठी रही

फिर सुबह सवेरे

हम काग़ज़ के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले

मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया

उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली

और हम दोनों एक सैंसर की तरह हंसे

और काग़ज़ को एक ठंडे मेज़ पर रखकर

उस सारी नज्म पर लकीर फेर दी

2. एक घटना

तेरी यादें

बहुत दिन बीते जलावतन हुई

जीती कि मरीं-कुछ पता नहीं।

सिर्फ एक बार-एक घटना घटी

ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी

और इतनी स्तब्ध थी

कि पत्ता भी हिले

तो बरसों के कान चौंकते।

3.  खाली जगह

सिर्फ दो रजवाड़े थे

एक ने मुझे और उसे बेदखल किया था

और दूसरे को हम दोनों ने त्याग दिया था.

नग्न आकाश के नीचे-

मैं कितनी ही देर-

तन के मेंह में भीगती रही,

वह कितनी ही देर

तन के मेंह में गलता रहा.

3 . विश्वास

एक अफवाह बड़ी काली

एक चमगादड़ की तरह मेरे कमरे में आई है

दीवारों से टकराती

और दरारें, सुराख और सुराग ढूंढने

आँखों की काली गलियाँ

मैंने हाथों से ढक ली है

और तेरे इश्क़ की मैंने कानों में रुई लगा ली है.

साहिर की पी सिगरेट के टुकड़े बचाकर रखती थीं अमृता

दिल्ली की रहने वाली अमृता प्रीतम के मन में लाहौर के साहिर लुधियानवी उस वक्त बस गए जब दोनों की मुलाकात दिल्ली के एक कार्यक्रम में हुई. अमृता जितनी सुंदर कविता और उपन्यास लिखती थीं, वे खुद भी उतनी ही खूबसूरत और दिलकश थीं.

हालांकि अमृता प्रीतम पहले से शादीशुदा थी. बचपन में ही उनकी शादी प्रीतम सिंह से तय हो गई थी. अमृता अपनी शादीशुदा जिंदगी से कतई खुश नहीं थी और साहिर लुधियानवी के आने के बाद मानों उनके जीवन में खुशहाली की बहार आ गई.

अपनी दूसरी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में अमृता ने साहिर और अपने रिश्ते को लेकर खुलकर लिखा है. उन्होंने कभी भी अपने रिश्ते को छिपाने की कोशिश नहीं की. इस आत्मकथा में अमृता ने साहिर लुधियानवी से जुड़े कई किस्से भी लिखे हैं.

अमृता ने ने लिखा है कि दोनों मुलाकात बमुश्किल ही होती थी. साहिर लाहौर रहते थे और अमृता दिल्ली. अपनी इस दूरी को कम करने के लिए उन्होंने ख़तों का सहारा लिया. ख़तों के जरिए दोनों अपने इश्क को परवान चढ़ा रहे थे. अमृता साहिर के प्रेम में इतनी दीवानी हो चुकी थीं कि उन्हें ‘मेरा शायर, मेरा खुदा और मेरा देवता’ कहकर बुलाती थीं.

साहिर भी अमृता से उतना ही प्रेम करते थे, लेकिन बंदिशें इतनी थीं कि दोनों कभी एक न हो पाए. अमृता अपने पति के साथ लाहौर में शिफ्ट हो गई थीं. फिर भी दोनों की मुलाकात कम ही होती. रसीदी टिकट में अमृता लिखती हैं, हम जब भी मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती और नैन बोलते थे. दोनों बस एक दूसरे को देखते रहते.

ऐसे पड़ी सिगरेट की लत

अमृता और प्रीतम जब भी एक दूसरे से मिलते तो बिना कुछ कहे आंखों ही आंखों में अपनी भावना व्यक्त कर देते थे. इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे. अपनी आत्मकथा में अमृता ने लिखा कि साहिर आधी सिगरेट पीने के बाद उसे बुझाकर दूसरी जला लेते. मुलाकात के बाद जब वो चले जाते तो कमरे में उनकी पी हुई सिगरेट की महक रहती. सिगरेट के बचे टुकड़ों को संभालकर रखती थी और आधी जली सिगरेट को फिर से सुलगा लेती. उन्हें जब मैं अपनी उंगलियों में पकड़ती तो लगता था कि साहिर के हाथों को छू रही हूं और ऐसे सिगरेट पीने की लत लग गई.

आखिरी मुलाकात

अमृता उनसे कुछ साल बड़ी थीं, जिसके कारण साहिर की मां सरदार बेगम को उनका रिश्ता मंजूर नहीं था. वे अपनी मां के वचनों में प्रतिबद्ध थे. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, साहिर ने एक बार अपनी मां से कहा था, “वो अमृता प्रीतम थी. वो आप की बहू बन सकती थी”

अमृता भी जानती थीं कि साहिर अपने वचन को तोड़ कर उनके कभी नहीं बनेंगे. वे लिखती हैं, “मैंने टूट के प्यार किया तुम से, क्या तुमने भी उतना किया मुझ से?” यह बात उन्होंने साहिर को लिखे अपने अंतिम खत में लिखी थी, जो कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से साहिर को सौंपा था.

 

साहिर से आखिरी मुलाकात करते हुए अमृता ने जॉर्ज गॉर्डन बायरन को कोट करते हुए कहा, “अपने पहले प्यार में महिला अपने प्रेमी से प्यार करती है, अन्य सभी में वह जो भी प्यार करती है वह प्यार है.”

इसके बाद साहिर ने बहुत ही सहजता के साथ अमृता से पूछा, “आप जाने से पहले इसका तरजुमा क्या देंगी? (जानें से पहले, क्या आप इसे ट्रांसलेट करेंगी.) ”

इन बातों का जिक्र अमृता प्रीतम की खास दोस्त फाहिदा रियाज ने अपनी ‘अमृता की साहिर से आखिरी मुलाकात’ में किया है.

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अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में साहिर लुधियानवी के अलावा अपने और इमरोज़ के बीच के आत्मिक रिश्तों को भी  बेहतरीन ढंग से क़लमबंद किया। इस किताब में अमृता ने अपनी ज़िंदगी की कई परतों को खोलने की कोशिश की है।  इमरोज़, अमृता की जिंदगी में आए तीसरे पुरुष थे। हालांकि वह पूरे जीवन साहिर से प्यार करती रहीं। अमृता कई बार इमरोज़ से कहतीं- "अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते।" प्रस्तुत है उनकी एक नज़्म

मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

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या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलती रहूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

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मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी !!

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