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डीएमके पार्टी की ओर से अदालत में ईडब्ल्यूएस कोटे पर पुनर्विचार के लिए अर्जी

[Edited By: Rajendra]

Tuesday, 8th November , 2022 12:36 pm

सुप्रीम कोर्ट की ओर से ईडब्ल्यूएस कोटे को वैध और संवैधानिक बताए जाने का भाजपा, कांग्रेस समेत सभी दलों ने स्वागत किया है। एकमात्र दल डीएमके की ओर से इसका तीखा विरोध किया गया है। तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज डीएमके के नेता स्टालिन ने कहा कि हम इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका डालेंगे। उन्होंने कहा कि हम अपने वकीलों से राय ले रहे हैं और इसके खिलाफ फिर से अदालत जाएंगे। एमके स्टालिन ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि इससे एक सदी से चली आ रही सामाजिक न्याय की लड़ाई को धक्का लगा है। उन्होंने इसके खिलाफ सभी लोगों से एकजुट होने की भी अपील की।

सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को अब दस प्रतिशत आरक्षण का रास्ता साफ़ हो गया है। हालाँकि यह अब भी लागू है, लेकिन पहली बार इसे सुप्रीम कोर्ट ने मंज़ूरी दी है। साथ में कहा है कि पचास प्रतिशत से ऊपर आरक्षण देने की सीमा भी इसके आड़े नहीं आएगी। सर्वोच्च अदालत की पाँच जजों वाली पीठ ने यह फ़ैसला बहुमत से सुनाया। चीफ़ जस्टिस सहित दो जज इस तरह के आरक्षण से सहमत नहीं थे जबकि शेष तीन जज सहमत थे।

अभी यह कहा नहीं जा सकता कि अन्य तरह के पचास प्रतिशत से ऊपर के जातीय आरक्षण (जैसे गुर्जर आरक्षण, मराठा आरक्षण आदि) में यह फ़ैसला उदाहरण बन पाएगा या नहीं, लेकिन इतना तय है कि आंदोलनकारी समाज या जाति समूह इसे उदाहरण बनाकर अपनी माँगे रखेंगे ज़रूर।

जो दो जज आर्थिक ग़रीबों को आरक्षण देने से असहमत थे, उनका तर्क था कि इस वर्ग को आरक्षण देना संविधान सम्मत हो सकता है, लेकिन बाक़ी आरक्षित वर्ग के ग़रीबों को इससे दूर करना ठीक नहीं है। इसलिए यह समानता के पक्ष में नहीं कहा जा सकता। आरक्षित वर्ग के ग़रीबों से उनका मतलब अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और पिछड़ा वर्ग के ग़रीबों से था। हालाँकि इस वर्ग को पहले से ही आरक्षण मिल रहा है। सवाल यह भी उठ सकता है कि इन तीनों वर्गों को दोहरा आरक्षण लाभ क्यों दिया जाना चाहिए?

बहरहाल, आर्थिक ग़रीबों को इसका कितना फ़ायदा मिल पाएगा यह भी एक सवाल है क्योंकि निःशुल्क अनाज लेने वाले अगर अस्सी करोड़ लोग हैं तो इतने तो गरीब होंगे ही। दस प्रतिशत से इतने सब का क्या भला होगा? यह ज़रूर है कि इसे एक अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है। इसलिए कि इस फ़ैसले का आधार जातिवाद से बहुत ऊपर है। देश के ग़रीबों के भले के लिए इसमें एक सोच है।

वैसे तो अब जो पिछड़ा वर्ग का आरक्षण है, वह भी एक तरह से आर्थिक आरक्षण ही है, क्योंकि आठ लाख रुपए वार्षिक आय से ऊपर वाले परिवार के किसी भी व्यक्ति को पिछड़ा वर्ग आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। इसके ऊपर की आय वाले इन जातियों के लोग क्रीमी लेयर में आते हैं। आर्थिक ग़रीबों के आरक्षण में भी आठ लाख रुपए वार्षिक आय की सीलिंग है। इसलिए ये दोनों एक जैसे ही हैं। हो सकता है आगे चलकर देश में हर तरह के आरक्षण पर क्रीमी लेयर वाला क्राइटेरिया लागू हो जाए।

सामाजिक उत्थान और वर्षों से दबी-कुचली जातियों का भला हर देशवासी का कर्तव्य होना चाहिए, इससे किसी को गुरेज़ नहीं है, लेकिन कहीं कोई सीमा होनी चाहिए। समय की भी और आय की भी। देश के सवर्ण वर्ग में भी कई परिवार ऐसे हैं जिनके रोटी के लाले हैं, लेकिन उनकी अब तक कोई नहीं सुन रहा था। इस दस प्रतिशत आरक्षण के बाद इन सवर्णों को राहत ज़रूर मिल पाएगी।

तमिलनाडु की डीएमके सरकार इस मामले में एक पार्टी थी। उसने अपने राज्य में ईडब्ल्यूएस कोटे के तहत नौकरी न देने का फैसला लिया था और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। डीएमके के सहयोगी नेता टी. तिरुमावलन ने भी कहा है कि पार्टी की ओर से अदालत में पुनर्विचार के लिए अर्जी डाली जाएगी। स्टालिन ने कहा कि यह फैसला सामाजिक न्याय के लिए चल रही हमारी एक सदी की लड़ाई को धक्के की तरह है। उन्होंने कहा कि संविधान में आरक्षण के लिए पहला संशोधन कराने वाले सभी संगठनों और समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को एकजुट होना होगा। तभी हम इस मामले में अपना पक्ष रख सकते हैं।

स्टालिन ने कहा कि यह वक्त है, जब हमें सामाजिक न्याय के लिए फिर से एकजुट होना होगा। डीएमके की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने कहा कि आरक्षण का अर्थ सामाजिक न्याय से है। इसके तहत आर्थिक न्याय करने की भावना नहीं था। उन्होंने कहा, 'आरक्षण का मकसद यह था कि उन लोगों को शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में समान अवसर मिल सकें, जिनके साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है।' डीएमके के वकील ने कहा कि सिर्फ गरीबी के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं की जा सकती। गौरतलब है कि ईडब्ल्यूएस कोटे का संसद में भी डीएमके और आरजेडी ने विरोध किया था। इसके अलावा अन्य सभी दलों ने समर्थन किया था।

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