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काशी की होली- शीतला घाट पर जलाई जाती है पहली होलिका

[Edited By: Vijay]

Thursday, 17th March , 2022 12:01 pm

काशी की होली ही नहीं होलिकाएं भी देश भर में अनूठी हैं। रंगभरी में जहां भगवान शिव राजराजेश्वर स्वरूप में भक्तों संग होली खेलते हैं तो वहीं दूसरे दिन भूतभावन अपने गणों संग चिता भस्म की होली खेलकर राग और विराग के अंतर को मिटाते हैं।

बात जब होलिका की होती है तो यहां 14वीं शताब्दी से भी अधिक प्राचीन होलिकाओं का इतिहास मिलता है। काशी में कई होलिकाएं ऐसी भी हैं जो कई सदियों से जलती आ रही हैं। बनारस में होलिकाएं गंगा घाट से लेकर वरुणा पार तक अपनी प्राचीनता के साथ आज भी उसी अंदाज में जलाई जाती हैं। शीतलाघाट की होलिका जहां गंगा से भी प्राचीन मानी जाती है वहीं कचौड़ी गली की होलिका 14वीं शताब्दी से जलती आ रही है।

रुद्र सरोवर के समय से शीतला घाट पर जलती है होलिका

केंद्रीय देव दीपावली समिति के अध्यक्ष वागीश शास्त्री ने बताया कि शीतला घाट पर जलाई जाने वाली होलिका का इतिहास काशी में गंगा से भी अधिक प्राचीन है। अपने बुजुर्गाें से सुनते रहे हैं कि कई पीढ़ियों से यहां पर होलिका दहन किया जा रहा है।

काशी विश्वनाथ दरबार में भी है होलिका की परंपरा

मान्यताओं की बात करें तो होलिका दहन तब से हो रहा है जब से काशी में गंगा की जगह रुद्र सरोवर हुआ करता था। आज भी काशी की पहली होलिका यहीं जलाई जाती है।  काशी विद्वत परिषद के मंत्री डॉ. रामनारायण द्विवेदी ने बताया कि बाबा विश्वनाथ के मंदिर के प्रथम द्वार ढुंढिराज गणेश की होलिका की अग्नि में अन्न के अंशदान की परंपरा है। श्री

काशी विश्वनाथ दरबार में भी होलिका दहन की प्राचीन परंपरा अनवरत जारी है। ढ़ुंढिराज के सामने जलाई जाने वाली होलिका भी सदियों पुरानी है। यहां लकड़ी व कंडे के साथ नवान्न के अंशदान की भी पुरानी रस्म रही है।

कचौड़ी गली में रखी गई थी पहली प्रह्लाद की प्रतिमा

वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति शर्मा बताते हैं कि कचौड़ी गली के नुक्कड़ पर जलने वाली होलिका का इतिहास 14वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है। उन्होंने अपने पुरनियों से इस होलिका के बारे में सुना था। काशी में यहीं से होलिका में प्रह्लाद की प्रतिमा रखने की शुरुआत हुई थी और आज शहर के लगभग सभी हिस्सों में प्रतिमाएं नजर आती हैं। यहां घर-घर से लकड़ियों व कंडे का अंशदान होलिका में प्रदान किया जाता है।

अनोखी है होली और होलिका दहन

बाबा मशाननाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने बताया कि जब से काशी में चिताएं जल रही हैं तब से यहां पर होलिका का दहन भी होता आ रहा है। होलिका दहन के अलावा होली का स्वरूप भी यहां पर अनोखा है। दुनिया भर में यही एक जगह है जहां पर चिता-भस्म से होली खेली जाती है। चिता भस्म की अनोखी होली के  लिए मशहूर मणिकर्णिका घाट की होलिका दहन का इतिहास भी सदियों पुराना है। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर शवयात्रा व शवदाह की बची वस्तुओं से होलिका बनाई गई

है।

बांटी जाती थी रंगों की पुड़िया और मिठाई

अस्सी निवासी आरके पाठक ने बताया कि अस्सी पर जगन्नाथ मंदिर के नजदीक जलने वाली होलिका का इतिहास भी सदियों से जुड़ा है। अस्सी क्षेत्र की होलिका दहन के दौरान पहले रंगों की पुड़िया और मिठाइयां बांटी जाती थीं, लेकिन अब समय से के साथ चीजें बदल चुकी हैं। बुजुर्ग बताते थे कि होलिका की तिजहरिया से ही नगाड़ों का जुलूस चंदा मांगने निकल जाता था।

दही हांडी का धमाल खींचता है भदैनी में

भदैनी निवासी प्रताप बहादुर सिंह ने बताया कि भदैनी की होलिका का इतिहास तो काशी में पेशवाओं के आने से पहले का है। उसके पहले से ही यहां पर होलिका दहन की परंपरा आज तक चली आ रही है। पेशवाकाल में इसकी रौनक तो बस देखते ही बनती थी। बीते कुछ सालों से यहां पर दही की हांडी फोड़ने की परंपरा युवाओं के लिए आकर्षण का केंद्र है। होलिका में दही, रंग हांडी फोड़ने का धमाल हर किसी को अपनी तरफ खींचता है।

जलती है होलिका, गूंजता है फाग

चेतगंज चौराहे पर प्राचीन काल से होलिका जलती आ रही है। चेतगंज निवासी राजेंद्र गुप्ता ने बताया कि इस होलिका की शुरुआत चेतगंज रामलीला की शुरुआत करने वाले बाबा फतेहराम के पहले से ही हो चुकी थी। गोबर के कंडों पर होलिका को सजाया गया है। आज भी यहां नगाड़ों की गूंज के बीच होलिका जलाई जाती है और फाग का गायन होता है।

अब नहीं गूंजते मंत्र और शहनाई

कबीरचौरा निवासी रविंद्र सहाय कैलाशी ने बताया कि पियरी की होलिका में शहनाई के धुन के साथ ही मंत्रों की गूंज सुनाई देती थी, लेकिन समय के साथ ही अब यह सभी अतीत की बात हो चुकी है। बुजुर्ग बताते हैं कि पियरी चौराहे पर 14वीं सदी से होलिका दहन की परंपरा चली आ रही है। शहनाई और मंत्रोच्चार की रस्म तो अब नहीं निभाई जाती है लेकिन होलिका दहन होता है। 

अब नहीं गूंजते हैं खमसा के गीत
साहित्यकार डॉ. जितेंद्र नाथ मिश्र बताते हैं कि काशीपुरा मोहल्ले में होलिका दहन की परंपरा भी बेहद पुरानी है। ठठेरों की बस्ती काशीपुरा में होलिका के दिन खमसा का गायन होता था, लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही यह परंपरा अब लुप्त हो गई है। ठठेरों का समूह पांच पदों वाले खमसा गीत गाते हुए फू लों की बारिश के बीच शोभायात्रा निकालते थे। इसके बाद होलिका का दहन होता था, अब यह बीते दिनों की बात है।

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